ज्ञाना अमृत



 

मानव जीवन की सफलता भगवत प्राप्ति में हैं विषय भोगों की प्राप्ति में नहीं जो मनुष्य जीवन के असली लक्ष्य भगवान को भूलकर विषय-भोगों की प्राप्ति और उनके भोग में ही रचा बचा रहता है वह अपने दुर्लभ अमूल्य जीवन को केवल व्यर्थ ही नहीं खो रहा, वरम् अमृत देकर बदले में भयानक विष ले रहा है।

‌ कर्म  बंधन कारक नहीं है बंधनकारक है कर्मफल में आसक्ति तथा कामना । मन में से विषय आसक्ति को निकाल दो और भगवान के साथ चित्त का योग करके भगवत्प्राप्ति अर्थ कर्म करो भलीभांति कर्म करो,फिर वह कर्म बंधनकारक नहीं होंगे, ना उनके अनुकूल और प्रतिकूल फलों से चित्त में कोई हर्ष या उद्वेग  ही होगा वस्तुतः इस प्रकार तुम स्वत:योग युक्त हो जाते
हो।
भगवान ही तुम्हारे अपने स्थान हैं। तुम्हारे परम आश्रय स्थल है उन  देवस्थान में स्थित रहते ही सारे कर्मों का आचरण करो । फिर चाहे तुम किसी देश ,किसी ग्राम ,किसी घर में रहो,कोई आपत्ति की बात नहीं यरण्यं तथा  गृहम् ।

तुम्हारी अलौकिक परिस्थितियों में चाहे जैसा परिवर्तन हो तुम्हारे कार्यक्षेत्र और कार्यों में कुछ भी फेरबदल हो तुम भगवान की गोद को कभी मत छोड़ो यही तुम्हारा अपना घर है वे 'गतिर्भता प्रभु: साक्षी निवास:शरणम श्री सुहृद'हैं बस ध्यान सदैव बना रहे।

जब तुम्हारे मन इंद्रियों के सारे काम भगवान की गोद में बैठे हुए होंगे ,तब तुम भगवान के साथ योगस्थ होकर सभी काम करोगे ,तब तुम्हारी समस्त काम स्वामी पवित्र से पवित्रता होते चले जाएंगे। तुम्हारे कार्यों से स्वत: ही  लोक कल्याण होगा।उनमें आनंद शांति सामंजस्य और कल्याण रूपी फल फल लेंगे । तुम जो कर्म अपने लिए आ सकती और फल कामना को लेकर करोगे वह कर्म कभी पवित्र नहीं रह सकता क्योंकि उसमें लोक कल्याण की और भगवत पूजा की दृष्टि ही नहीं है। तुच्छ स्वार्थ का कामनापरक काम कल्याण कर्मों के लिए उपयोगी नहीं होता।   

भगवान मंगल में हैं जगत भगवान से भरा है अतएव तुम भी मंगल में ही निवास करते हो जैसे बादल से सूर्य ढका रहता है और जैसे राख से आग ढकी रहती हैं वैसे ही तुम्हारे अविश्वास से मंगलमय भगवान ढके हुए हैं वास्तव में उनका मंगलमय स्वरूप नित्य और सर्वत्र हैं।
 भगवान भगवान बड़ी ही दयालु हैं तुम उनकी सत्ता पर विश्वास नहीं करते, तो भी वह तुम पर नाराज नहीं होते । वैसे ही, जैसे बच्चे के अपराध पर मां नाराज नहीं होती। उनकी इस दयालुता पर विश्वास करो और उन्हीं से यह वर  मांग लो‌, जिसमें उनकी सर्वगत सत्ता तथा सदा सर्वत्र स्थिति पर तुम्हारा अटल विश्वास हो जाए

भगवान सदा सर्वत्र विराजमान है इस सत्य पर विश्वास होते कि तुम पाप रहित तो हो ही जाओगे । निर्भय भी हो जाओगे , पुलिस का सिपाही साथ रहता है तो मनुष्य चोर डाकू से निर्भय हो जाता है, फिर जब साक्षात अखिल लोक सम्राट सर्वशक्तिमान भगवान तुम्हारे साथ होंगे तब तुम्हें किससे कैसा भय रहेगा? फिर तो प्रत्येक स्थिति में भगवान को अपने साथ जानकर तुम निर्भय रहोगे।

सच्ची शरणागति भगवान के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण हो जाने पर ही सिद्ध होती हैं और सच्चा आत्मसमर्पण वह है जिसमें अपने पास अपना कुछ रहे ही नहीं शरीर मन बुद्धि अहंकार चेतना सभी कुछ भगवान के हो जाए जिसने भगवान के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया है वह भगवान के कार्य का आधार बन जाता है जिसके द्वारा फिर जो कुछ भी क्रिया होती हैं सब भगवान की ही होती है उसका अपना अपने लिए पृथक कुछ रहता ही नहीं जिसने भगवान के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया है वह सदा सर्वदा प्रसन्नता पूर्वक यंत्र की भांति भगवान का कार्य करता रहता है वहां किसी भी स्थिति में प्रतिकूलता का अनुभव नहीं करता उसकी प्रतिकूलता अनुकूलता भगवान की मंगलमय इच्छा में मिलकर नित्य सम उल्लास समय स्थिति के रूप में परिणत हो जाती है

 जिसने भगवान के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया है, वहां इस जगत को दूसरे लोगों की भांति जड़ ,अनित्य और दु: खपूर्ण नहीं देखता ,उसकी आंखें बदल जाती है और वह इस चराचर आत्मक समस्त जगत को प्रतिक्षण शाश्वत चिदानंदमय श्री भगवान के रूप में देखता है। एवं इसकी प्रत्येक परिवर्तन और सर्जन संहार में वह भगवान की दिव्य लीला का अनुभव कर के आनंद मग्न रहता है

 जिसने भगवान के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया है वह नित्य परम शांति को प्राप्त करता है , अशांति या चित्त की चंचलता तभी तक रहती है, जब तक चित्र में जन्म मृत्यु जगत के अनंत दृश्य भरे रहते हैं ,और जब भगवान के चित में मिलकर घुल मिल जाता है ,तब वह नित्य शांति में भगवान का निवास स्थल बन जाता है सागर के ऊपर ऊपर ही तरंगे होती है उसका गंभीर अंत स्थल अत्यंत शांत होता है इसी प्रकार जब तक बाहरी जगत में रमता है तब तक उसकी चंचलता नहीं मिटती , पर वही जब अनंत गहराई में जाकर भगवान को पा जाता है तब सवर्था  शान्त स्थिति में पहुंच जाता है ।

जिसने भगवान के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया है आनंद का दिव्य और अटूट भंडार बन जाता है जिसके द्वारा नित्यानंद का स्त्रोत बहता रहता है वह जगत के अनेका अनेक त्रितापतप्त प्राणियों को  दिव्य शान्ति मयी आनंद सुधाधारा में बाहकर उनके ताप को  सदा के लिए मिटा देता है।  

जिसने भगवान के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया है वह यदि कुछ भी नहीं करता है, तब भी उसका जगत में अस्तित्व मात्र ही जगत के कल्याण में बहुत बड़ा सहायक बनता है। और जो महापातकी लोग भी उसके संपर्क में आ जाते हैं उनका भी जीवन  पलट जाता है वह घोर नरक से निकलकर दिव्य भगवत धाम में पहुंच जाते हैं और वह भी तरण- तारण बन जाते हैं
 जिसने भगवान के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया है उसके लिए भगवान का दिव्य धाम उतर आता है, वह नित्य भगवत धाम में ही सोता जागता ,चलता फिरता ,खाता पीता और सारी क्रियाएं करता है। वह कभी भगवान से अलग नहीं होता और भगवान कभी उससे अलग नहीं होते उसके भीतर बाहर सर्वत्र सदा भगवान ही भरे रहते हैं। 

 भगवान दो मौके पर हंसते हैं। एक तो तब ,जब दो भाई रस्सी लेकर जमीन को नापते हैं और कहते हैं - 'इतनी जमीन 'मेरी' है, इतनी ' तेरी' और दूसरे तब , जब काल देव सिर पर खड़े हैं और डॉक्टर कहता हैं- ' मैं इस रोगी को बचा लूंगा। '

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