भाद्रपद मास में आवे वाली ऋषिपंचमी-व्रत कथा, विधि और महिमा
महादेवजी कहते हैं- पार्वती! एक समय की बात है, मैंने जगत् स्वामीके भगवान श्रीविष्णु से पूछा- भगवान! सभी व्रतोंमें उत्तम व्रत कौन है, कौन पुत्र-पौत्रकी वृद्धि करने वाला और सुख-सौभाग्यको देने वाला हो? उस समय उन्होंने जो कुछउत्तर दिया, वह सब मैं पृष्ठ पर हूँ; सुनो.
श्रीविष्णु बोले- महाबाहु शिव! पूर्वकाल में देवशर्मा नामके एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेदोंके पारगामी विद्वान थे औरसदा स्वाध्यायमें ही लगे रहते थे। प्रतिदिन अग्निहोत्र करते हुए तथा सदा अध्ययन-अध्यापन, यजन-यजन एवंदान-प्रतिग्रहरूप छ: कर्मोंमें प्रवृत्त रहते थे। सभी वर्णों के लोगों में उनका बड़ा आदमी था। चे पुत्र, पशु औरबन्धु-बांधव - सबसे प्रभावशाली थे। ब्राह्मणों में श्रेष्ठ देवशर्माकी गृहिणीका नाम भगवान था। भादोंके शुक्लपक्ष मेंपंचमी तिथि आनेपर तपस्या
( व्रत पालन ) इन्द्रियोंको वशें धारण किये पिताका एकोद्दिष्ट श्राद्ध करते थे। पहली दी रात में सुख और सौभाग्यप्रदान करने वाले ब्राह्मणों को निमंत्रण देते थे और निर्मल प्रभातकाल आते थे, दूसरे दूसरे नील बिंदु मांगते थे और उनसभी देशों में अपनी स्त्रीके द्वारा पाक तैयार करने के लिए तैयार किए जाते थे। वह पाक आठ रसोंसे युक्त एवंपितरोंको संतोष प्रदान करने वाला था। पाक तैयार होने पर वे पृथक्करण-पृथक ब्राह्मणों को बुलायावा सगा बुलावतेथे।
एक बार उक्ति समय पर निमन्त्रण पाठ में समस्त वेदपाठी ब्राह्मण डोईमें देवशर्माके घर उपस्थित हुए। विप्रवरदेवशर्मणे अर्घ्य-पाद्यादि निवेदन करके उनका स्वागत-सत्कार करें। फिर घरके इन जानेपर सार्वजनिक रूप से बैठने केलिए आसन दिया और विशेष मिष्ठान्नके के साथ उत्तम अन्न उन्हें भोजन करनेके के लिये; साथ ही विधि-विधान सेपिंडदानी का अनुष्ठान करने वाला श्राद्ध भी किया। इसके बाद पिता का चिंतन करते हुए उन्होंने उन ब्राह्मणोंको नानाप्रकार के वस्त्र, दक्षिणा और तांबूल से निवेदन किया। फिर उन युनिवर्सिटी विदा। वे सभी ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुएचले गये। ईजाद अपने सगोती, बंधु बांधव तथा और भी जो लोग भागीदार थे, उन साबुत ब्राह्मण ने विधि खाना दिया। इस प्रकार श्राद्धका कार्य समाप्त होने पर ब्राह्मण जब कुटीके द्वार पर बैठा, उस समय उनकी घरकी कुटिया और बैलदोनों के बीच कुछ बातचीत करने लगे। देवी! बुद्धि ब्राह्मणे उन दोनोकी बातें संतं और समझीं। फिर मन-ही-मन वे इसप्रकार कहते हैं- 'ये साक्षात् मेरे पिता हैं, जो मेरे ही घरके पशु हैं और यह भी साक्षात मेरी माता है, जो दैवयोगसे कुटियाहो गई हैं। अब मैं दस्तावेज़ों के लिए निश्चित रूप से क्या करूँ?' इसी विचार में पढ़े-लिखे ब्राह्मणों को रातभर नींदनहीं आई। वे भगवान विश्वेश्वर का स्मरण करते रहे। प्रात:कालपर वे ऋषियोंके निकट आये। वहां वसिष्ठजीनेउनका स्वागत किया गया।
वसिष्ठजी बोले- ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपना अनेका कारण बताएं।
ब्राह्मण बोला- मुनिवर ! आज मेरा जन्म सफल हुआ तथा मेरी सम्पूर्ण क्रियाएँ आज सफल हो गयीं; क्योंकि इससमय मुझे आपका दुर्लभ दर्शन प्राप्त हुआ है। अब मेरा समाचार सुनिए। आज मैंने शास्त्रोक्त विधि से श्राद्ध किया, ब्राह्मणों को भोजन दिया और समस्त कुटुंबके लोगों को भी भोजन दिया। प्रत्येक भीजन की आकृति एक कुतिया आईऔर मेरे घर में एक भी बैल नहीं रहता है, वहां उसे पतिरूपसे चित्रित करके इस प्रकार देखा जाता है- जो घटना घटी है, उसे सुनो। इस घरमें जो 'स्वामिन्!' आज दूध का पॉश्चर रखा गया था, उसे सपने अपना ज़हरकर ने देखा मेरे मन मेंबोल बड़ी चिंता हुई। देखें- यह कर दिया। ये मैंने अपनी आँखों से देखा था। दूध से जब भोजन तैयार होगा, उस समयसब ब्राह्मण
यहीं पर मर गया। यो विचारकर में स्वयं उस दूध को पीने लगी। तीसरी में बहुकी दृष्टि मुझपर पड़ गई। उसने मुझेबहुत मारा मेरा अंग-भंग हो गया है। इसी तरह मैं लड़कियाँ खड़ी हुई चल रही है। 'क्या करूँ, बहुत दुःखी हूँ।'
कुतियाके दुःख का अनुभव करके भी आपने कहा- अब मैं अपने दुःख का कारण बताता हूँ, सुनो; मैं पूर्वजन्म में इसब्राह्मण का साक्षात् पिता था। आज ईस्टर ब्राह्मणोंको भोजनालय और समृद्ध अन्नका दान किया गया है; समुद्र मेरेआगे की ओर चास और जलतक नहीं रखा। इसी दुःख से मुझे आज बहुत परेशानी हुई है। उन दोनों के इन चित्रों नेमुझे रातभर नींद में नहीं आने दिया। मुनिश्रेष्ठ। मुझे तभी से बड़ी चिंता हो रही है। मैं वेद का स्वाध्याय करने वाला हूं, वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में कुशल हूं फिर भी मेरे माता-पिता को महान दुख सहन करना पड़ रहा है। इसके लिए मैं क्याकरूँ? यही विचार- विचार आपके पास आया हूं। आप ही मेरा अभिरुचि दूरदर्शिता।
ऋषि बोले-ब्राह्मण ! उन दोनों ने पूर्वजन्म में जो कर्म किया है, उसे सुनो-इसके पिता परम सुंदर कुंडिननगर श्रेष्ठब्राह्मण रह रहे हैं। एक समय भादोंके महीने में पंचमी तिथि आती थी, पिता-पिता के श्राद्ध आदि में लग जाते थे, इसलिए उन्हें पंचमौके व्रत का ध्यान नहीं दिया जाता था। उनके पिता की क्षयाह तिथि थी। उस दिन विवाह मातारजस्वला हो गई थी, तो उसने भी ब्राह्मणों के लिए सारा भोजन स्वयं ही तैयार किया। रजस्वला स्त्री पहले दिनचांडाली, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन धोबिनके समान अपवित्र बताई गई है: चौथे दिन स्नानके बाद उसकीशुद्धि होती है। टोकरे माताने इस पर विचार नहीं किया, मूलतः वही पापसेसेस अपनी ही घरकी कुटिया में पड़ा हुआ है। तथापि पिता भी इसी कर्म से जुड़े हुए हैं।
ब्राह्मणने कहा- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुने। मुझे कोई ऐसा व्रत, दान, यज्ञ और तीर्थ बताता है, जिसके सेवन सेमेरे माता-पिता की मुक्ति हो जाती है।
*भगवान् पद्मपुराण*
पुलहश्चैव क्रतुः वसिष्ठमारिचात्रेय अर्घ्यं गृह्नन्तु
प्राचेतसस्तथा।
वो नमः॥
(78.59-60)
ऋषि बोले- भादोंके शुक्लपक्ष में जो पंचमी आती है, उसका नाम ऋषिपंचमी है। उस दिन नदी, कुएँ, पोखरे याकेब्राह्मण के घर पर व्यापारी स्नान करे। फिर अपने घर गोबरसे लीपकर मंडल एक बर्तन उसे तिन्नीके चावल भर दे। उसपात्र में यज्ञोपवीत, सुवर्ण और फल के साथ ही सुख 'ऋषिपंचमी' के व्रत में स्थित पुरुषों को हर समय भोजन करके व्रतकरना होता है। उस दिन ऋषियोंका पूजन करना है। पूजनेके ब्राह्मणको दक्षिणा और घीके साथ अर्घ्यका मंत्र इसप्रकार है- समय
पुलस्त्यः
'ऋषिगण सदा मेरे व्रतको पूर्ण करनेवाले हूं। बनाना; मिश्रण कलश की स्थापना करे। कलशके ऊपर वे मेरी दीवालीपूजा स्वीकार करें। सभी ऋषियों को मेरा नमस्कार। पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्राचेतस, वसिष्ठ, मारीच और आत्रेय - येमेरा अर्घ्य ग्रहण करें। आप और शुभकामनाएँवाले सात ऋषियोंकी स्थापना करें। सभी ऋषियों को मेरा प्रणाम।'
इस प्रकार मनोरम धूप-दीप आदिके द्वारा ऋषियोंकी आह्वान करके पूजन करना नक्षत्र। तिन्नीके चावलका पूजाकरणीय जन्मोत्सव। इस व्रत के प्रभाव से पितरों की मुक्ति ही नैवेद्य स्थान और उसी का भोजन करे। बस एक ही बातहै. वत्स! पूर्वकर्मके परिणामसे या राजके संस्कारदोषसे जो कष्ट होता है, वह इस व्रतका अनुष्ठानके साथपरमभक्तिके मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए निःसंदेह से मिल जाता है।
महादेवजी कहते हैं- 'ऋषिपंचमी' व्रत का अनुष्ठान विधिपूर्वक भोजनसामग्रीका दान देना और पितृ-माताकी मुक्ति केलिए प्रार्थना करना। उस व्रत के प्रभाव से वे दोनों पति-पत्नी पुत्रों को सभी ऋषियों की शुभकामनाएं देते हुए इसदानका उद्देश्य को आशीर्वाद देते हुए मुक्तिमार्ग से चल पड़े। 'ऋषिपंचमी'- नक्षत्र। फिर विधि अनपेक्षित महात्म्यकथा श्रोता का यह पवित्र व्रत ब्राह्मणके लिए बताया गया है, बोरा ऋषियोंकी प्रदक्षिणा करे और ईसाईपृथक्करण-पृथक जो नरश्रेष्ठ इसका अनुष्ठान करते हैं, वे सभी पुण्यके धूप-दीप और नैवेद्य निवेदन करके अर्घ्य प्रदानकरें। भागी होते हैं। जो श्रेष्ठ पुरुष इस परम उत्तम ऋषिव्रतका का पालन करते हैं, वे इस लोक में प्रचुर भोगों काउपभोग करके अंत में भगवान श्रीविष्णुके सनातन लोक को प्राप्त होते हैं।
सन्तु नित्यं व्रतसं वास्तुकारिणः। पूजां गृह्न्नतु मद्दत्तामृषिभ्योऽस्तु नमो नमः ॥ ऋषयः मे
पद्मपुराण उत्तरखंड का 77वाँ अध्याय