सुदर्शन कवच
सुदर्शन कवच, रक्षा से सम्बन्धित कार्यों में अत्यधिक फलप्रद माना गया है, मनुष्य भौतिक श्रथवा चाध्यात्मिक रूप सेकैसी भी परेशानी से ग्रस्त हो यदि वह सुदर्शन कवच का पाठ करता है तो उसे जीवन में किसी भी प्रकार की समस्यादेखनी नहीं पड़ती। मैंने स्वयं सुदर्शन कवच का कई बार पाठ किया है और जब-जब भी मैं मानसिक परेशानियों सेजूझा हूँ उन्हीं क्षणों में इसने ढाल की तरह मेरी रक्षा की है, और मैं उन यंत्रणाओं से शोधाति- शीघ्र मुक्त हो सका हूँ।
पूरे भारत और विदेशों में फैले मेरे मित्रों, परिचितों एवं भक्तों के पास जाते रहने का मौका मुझे मिलता ही रहता है, कईस्थानों पर मैंने इस कवच की प्रशंसा सुनी, और जिन-जिन लोगों ने इस कवच से लाभ उठाया है उनकी संख्या अत्यधिकहै। मैंने जब भी किसी व्यक्ति या परिचित को परेशान या दुखी देखा है, उसे सुदर्शन कवच के पाठ करने की सलाह दी हैऔर कुछ ही दिनों के बाद उसने राहत का अनुभव किया है। सुदर्शन कवच की प्रशंसा के बारे में जितना भी लिखा जायवह कम है।
वस्तुतः सुदर्शन कवच अपने आप में अद्भुत प्रभावकारी स्तुति है, मैंने सैकड़ों व्यक्तियों को इसके पाठ करने की सलाहदो है, और इन लोगों ने यह अनुभव किया है कि विपत्ति के समय इस कवच को कुछ पंक्तियों का हो पाट हो जाता है तोवह तुरन्त प्रभाव देने लग जाता है। आवश्यकता इस बात को है कि इस कवच का पाठ नित्य एक बार अवश्य हो जिससेकि विपत्ति पड़ने पर यह कवच उसके लिये स्वतः सिद्ध हो, और इसका लाभ मिल सके ।
वस्तुतः इस कवच का नित्य पाठ करना श्राज के युग में प्रत्येक व्यक्ति के लिये अनुकूल एवं श्रेष्ठकर ही माना जानाचाहिए।
सुदर्शन कवच
ओम अस्य भी सुदर्शनकवचमालामन्त्रस्य । श्रीलक्ष्मीनृसिहः परमात्मा देवता । मम सर्वकार्यसिद्धयथे जपे विनियोगः ।ओ क्षां अंगुष्ठाभ्यां नमः ओम हवीं तर्जनीभ्यां नमः ।
ओम श्रीं मध्यमाभ्यां नमः । ओम सहस्त्रार अनामिकाभ्यां नमः । ओम हूं फट् कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ओम स्वाहाकरतल-कर पृष्ठा- भ्यां ननः एवं हृदयादि ।
ध्यानम् उपास्महे नृसिहाल्यं ब्रह्मवेदान्तगोचरम् । भूयो लालित-संसार च्छेदहेतु जगद्गुरुम् ।।
मानस-पूजाः लं पृथिव्यात्मकं गन्ध समर्पयामि आकार्षात्मकं पुष्पं समर्पयामि । यं वाय्वात्मकं धूर्ण समर्पयामि । रंबहन्यात्मकं
दीपं समर्पयामि । वं अमृतात्मकं नेवेद्यं निवेदयामि । सं सवांत्मकं ताम्बूलं समर्पयामि । नमस्करोमि ।
ओम सुर्दशनाय नमः । ओम आं हवीतों नमो भगवते प्रलयका- लमहाज्वालाघोर-वीर-सुदर्शन-नारसिंहाय ओममहाचक्रराजाय महाबलाय सहस्रकोटिसूर्यप्रकाशाय सहस्रशीर्षाय सहस्राक्षाय सहस्र- पादाय संकर्षणात्मने सहस्रदिव्यास्त्र-सहस्र हस्ताय सर्वतोमुखज्वलन- ज्वालामालावू ताया विस्फुलिंगस्फोटपरिस्फोटित ब्रह्माण्ड भाण्डायमहापराक्रमाय महोग्रविग्रहाय महाविराय महाविष्णु- रूपिणे व्यतीतकालान्तकाय महाभद्ररौद्रावताराय मृत्युस्वरूपायकिरीटहार-केयूर-प्रेवेय-कटकांगुलीय-कटिसूत्र-मंजोरादिकनकमणि- खचित दिव्यभूषणाय महाभीषणाय महाभोक्षयाव्याहततेजोरूप- निधेय रक्तचण्डान्तक मण्डितमदोरुकुण्डावुनिरीक्षमाण प्रत्यक्षाय ब्रह्मचत्र विष्णुचक्र-कालचक्र-भूमिचक्रते-जोरूपाय आधितरक्षाय ।
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ओम सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि । ततश्चक्रः प्रचोदयात् इति स्वाहा स्वाहा (दो बार ) भो भो सुदर्शन नारसिंहमां रक्षय रक्षय ।
ओम सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि । तन्नश्चक्रः प्रचोदयात् ।। (दो बार)
मम शत्रुन्नाशय नाशय । ओम सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि । तत्तश्चक्र प्रचोदयात् ।। (दो बार)
ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल चंड चंड प्रचंड प्रचंड स्फर स्फुर प्रस्फुर घोर घोर घोरतर घोरतर चट चटं प्रच्चंट प्रचंट प्रस्फुटवह कहर भग भिंधि हंधि खटट प्रचट फट जहि जहि पय सस प्रलयवा पुरुपाय रं रं नोत्रग्निरूपाय । ओम सुदर्शनायविद्महे महाज्वालाय धीमहि । तन्नश्चक्रः प्रचोदयात् (दो बार)
भो भो सुदर्शन नारसिह मां रक्षय रक्षय । ओम सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि । तत्रश्चक्रः प्रचोदयात् ।। (वोबार)
एहि एहि आगच्छ आगच्छ भूतग्रह प्रेतग्रह-पिशाचग्रह-वानवग्रहकृतिमग्रह-प्रयोगग्रह-आवेशग्रह-आगतग्रह-अनागतग्रहान ब्रह्मग्रह-रुद्रग्रह-पाताल-निराकारग्रह-आचारअनाचरग्रह-नानजातिग्रह-भूचरग्रह- खेचरग्रह-वृक्षचरग्रह-पीक्षिचरग्रह- गिरिचरग्रह-शमशानचरग्रह-जल- चरग्रह-कूपचरग्रह-देगारचलग्रह-शून्याचारचरग्रह-स्वप्नग्रह-दिवामनो
प्रह-बालग्रह-मूकग्रह-मूलग्रह-बधिरग्रह-स्त्रीयह-पुरुषग्रह-यक्षवह-राक्षसपह-प्रेतग्रह-किन्नरग्रह-साध्यचरग्रह-सिद्धचरग्रह कानिनीग्रह-मोहिनी- पह-पदिमनीग्रह-यक्षिणीग्रह-पक्षिणोग्रह-संध्याग्रह-नार्ग ग्रह-कलिन- देवीग्रह-भैरवग्रह-बेतालग्रह-गंधर्वग्रह प्रमुखसकलदुष्टग्रहरातांन् आकर्षय आकर्षय आवेशय ड ड ड ट हाय बाय दहा भस्मीकुरु उच्चादय उच्चाटय ।
ओम सुदर्शन विद्महे महाज्वालाय धीमहि । तनश्चक्रः प्रचो- वयात ।। (वो बार)
ओम क्षां श्रीं ं ं क्षों श्रः श्रां घी पूं श्रों घः हां दीं द द्दों छः प्रां श्रीं हूं मैं में प्रों प्रः श्री श्रीं बूथे श्रों श्रः ।
ओम सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि । तनश्वकः प्रचोदयात् ।। (बो बार)
एहि एहि सालवं संहारय शरभं कंदय विद्रावय विद्वावय भैरवं भीषय भीषय प्रत्यंगिरं मदंय मर्दय चिदम्बरं बन्धय बन्धयविडम्बरं प्रासय प्रासय शांर्भवां निवतंय निवतंय काली वह वह मषिासुरी छेदय छेवय दुष्टशक्ति निर्मूलय निर्मूतय हं हूंमुरुमु परमंत्र परयंत्र-परतंत्र कटुपर बादुपर बेडुपर जप पर होमपर सवत्रदीप- कोटिपूजां भेदय भेदय मांरव मांरव संवयचखंडव परकतुर्क विषं निविषं कुरु कुरु अग्निमवं प्रकाण्ड नानाविष-कतं मुख-वनमुखं- प्रहान् वर्णय चूर्णय मारी विदारयविदारय कूष्मा डं वैनायक मारी- चगणान् भेदय भेदय मंत्रापरस्मांक विमोचय विमोचय अक्षिशूल- कुक्षिशल-गुल्मशूल-पाश्र्वशूल-पावशूलं-सर्वाबापां निवारय निवारव पाडुरोगं संहारय संहारय विषमज्वरं जालय प्रासबएकाहिकं द्वाहिक प्रयाहिकं चातुधिकं पंचाहिक वष्ट्यरं सप्तंमज्वरं अष्टमज्वरं नमवज्वरं प्रेतज्वरं भूतज्वरं पिशाचरंदानंवज्वरं महाकालज्वरं दुर्गाज्वरं ब्रह्मविष्णुज्वरं मोहश्वरज्वरं चुतुःषष्टीयोगिनी ज्वरं गंधर्वज्वरं बेतालज्वरं एतान्ज्वाराप्रादाय नाशय दोवं भचय मंचव दुरितं हर हरअनंतवासुकि तक्षक कालीय पद्म कुलिक ककोटक शंखपालाद्यष्टनागकुलानां विषं हन हन वं वं वं चंपावतं नाजव नाशय शिलण्डिं खंडव लंड ज्वालामालिनी निवर्तय निवर्तवसर्वेन्द्रियाणि स्तंभव स्तंभव बंडप लंड प्रमुखदुष्टतंत्र स्फोटव भ्रामय जामव महानारायणास्त्राय पंचाशद्धणंरूपाय लसलस
शरणागतरक्षणाय हूँ हूँ नंवं वंशं अपलमूर्तये तभ्यं नमः । आओ सुवर्णनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि । तनश्चकःप्रचोदयात् ।। (दो बार)
भो भो सुदर्शन नारसिंह मां रक्षय रक्षय । ओम सुदर्शनाय विद्महे महाज्यालाय धीमहि । ततश्चकः प्रचोदयात् ॥ ममसर्वा- रिष्टशाति कुरु कुरु सर्वतो रक्ष रक्ष ओम ही हूँ फट् स्वाहा । ओम क्षों द्वो थी सहस्त्रार हूँ फट् स्वाहा।
पद्मावती स्तोत्र
पद्मावती स्तोत्र
यह स्तोत्र संसार का श्राश्चर्यजनक महत्वपूर्ण स्तोत्र है, जो एक साथ धन धान्य यशं, कीति, प्रसिद्धि उन्नति, सम्मानऔर दीर्घायु, सुख-स्वास्थ्य आदि देने में समर्थ है। जैन साधुश्रों के मतानुसार यदि कोई व्यक्ति प्रातःकाल सिर्फ एकबारइस स्तोत्र का पाठ कर लेता है, तो भी वह श्राश्चर्यजनक सफलता अनुभव करता है, यह स्तोत्र आर्थिक उन्नति देनेमेंरामबाण की तरह है, जिस का प्रभाव कभी भी खाली नहीं जाता । प्रत्येक साधक को सिर्फ एक बार इस स्तोत्र कापाठअवश्य करना चाहिए, कई बड़े उद्योगपति दीपावली की रात को मात्र इस स्तोत्र के १०८ बार पाठ करते हैं, और वेवर्ष भरअतुलनीय व्यापार-वृद्धि एवं आर्थिक उन्नति प्राप्त करते हैं, लक्ष्मी प्रदायक स्तोत्रों में यह स्तोत्र सिरमौर है ।
पद्मावती स्तोत्र
पद्मावती स्तोत्र श्रीमद् गीर्वाण चक्रस्फुट मुकुट तटि दिव्य माणिक्यमाला । ज्योति र्जाला कराला स्फुरित मुकुरिकादृष्टपादार बिन्दे || व्याघ्रोरूल्का सहस्र स्फुरज्ज्वलन शिखालोलपाशां कुशाड् ये । आं क्रों ह्रीं मन्त्र रूपे क्षपित कलिमलेरक्षमां देवि पद्म || १ ||
भित्वापातालमूलं चल चलित चलीते व्याल लीला कराले । विद्य च्छण्ड प्रचन्ड प्रहरणसहितैः सद्भु जैस्तर्जयन्ति || देत्यैन्द्रंक्रू रदंष्ट्रा किटकिट घटितेस्पष्ट भीमाट्टहासे । माया जो मूत माला कुहरित गगने रक्षमा देवोपद्ये ।। २ ।।
कूजत्को दंड कांडो डमर विधुरित क्रूर घोरोप सर्ग । दिव्यं वज्रातपत्रं प्रगुण मणि रणत्र्किाकरणोक्वाणरम्यं ॥ भासद्ध डूर्यदंड मदन विजयिनो विभ्रतीपार्श्व भर्तु । सादेवो पद्म हस्ता विघटयतु महा डामरं मामकोनं ।। ३।।
भृंगी काली कराली परिजन सहिते चण्डि चामुण्डि नित्ये । नां क्षीं क्षु क्षः क्षणाद्ध क्षतरिपुजिवहे ह्रीं महामन्त्र रूपे ।। भ्रांश्रीं भ्रू श्रः भृगसंग भृकुटि पुट तटे त्रासि तोछाम दैत्ये । झां झीं झ झः प्रचण्डे, स्तुति शत मुखरे रक्ष मां देवो पद्म ।।४ ||
पद्मावती स्तोत्र
चंचत्कांची कलापे स्तन तट विलुठ त्तार हारावली के । प्रोत्फुल्लत्पारिजात द्रुम कुसुम महा मंजरी पूज्यपादे ।। द्रांद्रींक्लीं ब्लू व्रीं समेते भुवन वसकरी क्षोभिणी द्राविणीत्वं । आं ऐं ओं पद्महस्ते कुरु कुरु घटते रक्षमां देवो पद्म ।। ५ ।।
लीला व्यालोल नीलोत्पल दलनयने प्रज्वल द्वाडवाग्निः । उद्यज्ज्वाला स्फुलिंग स्फुरु दरूण करुदन वज्रांग हस्ते । हांह्रींह्र ह्रीं ह्रः हरति हर हर हूं कार भीमेक नादे । पद्म पद्मासनस्थै व्यय नय दुरितं रक्षमां देवी वन्दे ।। ६ ।।
कोपं वं जं सं हं सः कुवलय कलितोद्दाम लीला प्रबंधे । झांझी भू भूः पवित्र शशि कर घवले प्रक्षरक्षीर गौरे ।।व्यालव्याबद्ध जुटे प्रबल बल महाकाल कूटं हरंति । हा हा हूं कार नादे कृत कर कमले रक्षमां देवी पद्मे || ७ ||
प्रतर्वाला वरस्मि छुरित बन महा सांद्रसिंदूर धूलो । संध्या रागारूणांगी त्रिदश वर वधू वंद्य पादार विन्दे ।।चंचच्चंडासिधारा प्रहतरिपु कुले कुडलो धृष्ट गंडे । श्रां श्रों श्रं श्रः स्मरंति मद गज गमने रक्षमां देवो पद्म ॥ ८
विस्तीणें पद्मपीठे कमल दल निवासोचिते काम गुप्ते । लां तां श्रीं श्रीं समेते प्रहसित वदने दिव्यहस्ते प्रशस्ते ।।रक्तरक्तोत्पलांग, प्रतिवहसि सदावाग्भवं काम बीजं ।। हंसारूढे त्रिनेत्रे भगवति वरदे, रक्षमां देवी पद्म ।। ६ ।।
षट्कोणे चक्रमध्ये प्रणव वरयुते वाग्भवे काम राजे । हंसारूढे सविन्दो विकसित कमले कणिकाग्र निधाय ।।नित्येक्चिन्ने मदाद्रे द्रवयसि सततं सां कुसे पास हस्ते । ध्यानात् संक्षोभयन्ति त्रिभुवन वशकृद् क्षमां देवी पमे ।। १० ।।आं क्रौं ह्रीं पंच वर्णं लिखित प्रवर षट् चक्र मध्ये हस क्लीं । क्रों कों पत्रां तराले स्वरपरि कलिते वायुना वेष्टि तांगी ।। ह्रींवेष्टयां रक्तपुष्प जंपित दल महा क्षोभणी द्राविणीत्वं । त्रैलोक्यं चालयति सपदि जनहिते रक्षमां देवी पद्ये ।। ११ ।।
ब्रह्माणी कालरात्री भगवती वरदे चंडि चामुण्डि नित्ये । मातः गांधारि गौरी धृति मति विजये कोति ह्रीं स्तुत्य पद्म ।।संग्रामे शत्रु मध्ये ज्वलद नल जले वेष्टि तेन्यैः सुरास्त्रैः । क्षां क्षों क्षु क्षः क्षणार्धे क्षतरिषु निबहे रक्षमां देवी पड्मे ॥ १२ ॥
पद्मावती स्तोत्र
खङ्ग कोदंड कांडे मुसल हलहरै बाण नाराच चक्र । शक्त्या सल्य त्रिशूले वर फण ससरै मुद्गरैर्मुष्टि दंडे ॥पासैपाषाणवृक्षै वर गिर सहितै रिष्ट शस्त्रै र्माल्यैः । दुष्टानां दारति वरभुज ललिते रक्षमां देवी पद्ये ॥१३॥
यस्या देवे नरेंद्रैर यक्षर्वर मरपतिगणैः किन्नरै दानवेन्द्रः । सिद्ध नाँगेन्द्र मुकुट तटै धृष्ट पादारविन्देः । सौम्ये सौभाग्यलक्ष्मीदलित कलिमले पद्म कल्याणमाले । अंबे काले समाधि प्रकट्य परमं रक्षमां देवी पद्म ।। १४ ।।
यूपे श्चंदन तंदुले शुभ महागंधेश्च मन्त्रालिक । नानावर्ण फलैः विचित्र सरसैः दिव्यं मनोहारिभिः ।। देवी पद्मावतीदीपैनैवेद्य वस्त्रैर नुभवनु करै भक्ति युक्त प्रदत्वा । राज्यं हेत्वां ग्रहाण भगवति वरदे रक्षमां देवी पद्म ।। १५ ।।
वनस्थिते परि लसत्यमाक्षि पद्मालये ।। मातः पद्मनि पद्मराग रुचिरे पद्म पद्म पद्मप्रसूना नने । पद्मामोदिनीपद्मोल्लासिनि पद्मराग रुचिरे पद्म प्रसूनाचिते । पद्म नाभि निलये पद्मालयं पाहि मां ।। १६ ।।
नवार्ण विद्वेषण मन्त्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय (अमुकं) विद्वेषणं कुरु कुरु स्वाहा ।
नवार्ण महामन्त्र
यह सम्पूर्ण एवं नवार्ण महामंत्र है। इसका उच्चारण ही देवी को प्रसन्न करने के लिए पर्याप्त है।
नर्वार्ण महामन्त्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महादुर्गे नवाक्षरी नवदुर्गे नवात्मिके नावचंडी महामाये महा- मोहे महायोग निद्रो जये मधुकैटभ विद्राविणिमहिषासुर मद्दिनि धून लोचन संहंत्री चंडमुंड विनाशिनी रक्त बीजांतके निशुंभ ध्वंसिनि शुंग दपधिय देवि अष्टावंशाबाहुके
कपाल खट्वांग शूल खड्ग खेटक धारिणि छिन्न मस्तक धारिणि रुधिर मांस भोजिनि समस्त भूत प्रेतादि योग ध्वंसिनिब्रह्मन्द्रादि प्तुते देवि मां रक्ष रक्ष मम शत्रुन् नाशय ह्रीं फट् ह्व ं फट् ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुडणरं विच्चे ।
सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्ति के लिए
नारायण हृदय
प्रयोग
आज के युग में वह आवश्यक है, कि साधक को सार्ण सिद्धि प्राप्त हो, किसी एक सिद्धि को प्राप्त करने के लिए याकिसी एक साधना सिद्ध करने से ही सब कुछ नही हो जाता । आवश्यकता इस बात की है, कि कोई ऐसा रहस्य हो, जिसके माध्यम से सम्पूर्ण साधनाओं में तत्क्षण सिद्धि प्राप्त हो ।
"भार्गव उपनिषद" में स्पष्ट रूप से बताया गया है, कि समस्त सिद्धियों को पूर्णता के साथ सिद्ध करने का एक मात्रसाधन “नारायण हृदय प्रयोग" ही है, लक्ष्मी प्राप्ति का श्रेष्ठतम प्रयोग नारायण हृदय प्रयोग ही है। जीवन की पूर्णउन्नति सुख, श्रौर सोभाग्य प्राप्त करने का एक प्रयोग 'नारायण हृदय" ही है ।
महषि वेदव्यास ने एक स्थान पर कहा है, यदि बिना 'नारायण हृदय साधना' किये लक्ष्मी साधना की भी जाती है, तो वहव्यर्थ होती है-
नारायणस्य हृदय सर्वाभीष्टफलप्रदम् । लक्ष्मी हृदयकं स्तोत्रं यदि चैतद्विनाकृतम् ।।
तत्सर्व निष्फलं प्रोक्त लक्ष्मीः क्रुध्यति सर्वतः । एतत्संकलितं स्तोत्रं सर्वाभीष्टफलप्रदम् ।।
अर्थात् यवि बिना नारायण हृदय प्रयोग किये लक्ष्मी साधना की जाती है, तो उसे अनुकूलता प्राप्त नहीं होती, उसके सारेकार्य निष्फल होते हैं, ऐसा न करने पर लक्ष्मी क्रोधित होतो है. और उसे सिद्धि प्राप्त नहीं हो पाती, इसीलिए यहनारायण हृदय समस्त मनोकामनाओं को पूर्णता प्रदान करने वाला है ।
गुरू गोरखताथ ने अपने शिष्यों को लक्ष्मी सिद्धि के लिए समझाते हुए कहा था कि यदि केवल नित्य एक बार 'नारायणहृदय' का पाठ हो जाता है, या यदि कोई साधक नित्य एक बार 'नारायण हृदय' का पाठ करता है या सुनता है तो उसकेघर में लक्ष्मी स्थायी रूप से निवास करती हैं।
प्रार्थनादशकं चैव मूलाष्टकमथापि वा। यः पठेच्छृणुयान्नित्यं तस्य लक्ष्मीः स्थिरा भवेत् ।।
है- श्रीमद्भागवत पुराण में एक स्थान पर बताया गया
श्रद्धा मैत्री दया शांतिः तुष्टिः पुष्टिः क्रियोन्नतिः । बुद्धिर्मेधा तितिक्षा होः मूर्तिधर्मस्य पत्नयः ।।
अर्थात् सृष्टि के आदिकाल में जब धर्म को उत्पत्ति हुई तो उनकी तेरह पत्नियों का वर्णन श्रीमदभागवत पुराण में आयाहै। इनके नाम है १- श्रद्धा, २- मंत्री, ३- दया, ४- शान्ति, ५- तुष्टि, ६- पुष्टि, ७- क्रिया ८- उन्नति, ९- बुद्धि, १०- सेधा, ११- तितिक्षा, १२- लज्जा और १३- सूति ।
ये धर्म को श्राधार भूत स्वरूपा है, जिनसे समस्त सनातन धर्म और विश्व का संचालन हो रहा है, पुराणों के अनुसार-
श्रद्धा से शुभ, मंत्री से प्रसाद, दया से अभय, शान्ति से सुख, तुष्टि से मद (प्रसन्नता), पुष्टि से स्मय (मुस्कान) क्रिया सेयोग, उन्नति से दर्ष, बुद्धि से अर्थ, मेधा (धारणा -शक्ति से स्मृति (स्मरण रखने की शक्ति) तितिक्षा से शेम हो से प्रभवऔर मूति से नर-नारायण ।
शास्त्रों के अनुसार मूति का तात्पर्य सम्पूर्ण संसार का कल्याण है, मूति का तात्पर्य जीवन की पूर्णता है, सूति का तात्पर्यधर्म अर्थ, काम और मोक्ष है, मूति का तात्पर्य सम्पूर्ण सिद्धि है। इसी मूति से नर-नारायण का जन्म हुआ, फलस्वरूप"नारायण हृदय" का पाठ करने से सम्पूर्ण सिद्धियां, सफलता, ओर श्रेष्ठता प्राप्त हो पाती है।
अठारह पुराणों के रचयिता महर्षिवेद व्यास ने कहा है, मूति के कई नाम है, और कलियुग में यदि मूति अर्थात् सिद्धि सेप्रादुर्भाव नारायण हृदय का पाठ नहीं करते, समझ लो, वे संसार में कुछ भी सफलता जित नही कर पाते-
प्राप्ते कलावहह दुष्टतरे च काले । न त्वां भजन्ति मनुजा ननु वंचितास्ते ।।
अर्थात् कलियुग के आ जाने से लोगों का खराब समय प्रारम्भ होगा, उस समय भी यदि वे 'नारायण हृदय' का पाठ नहींकरते हैं, तो समझ लेना चाहिए कि वे प्राणी अवश्य ही इस संसार में ठगे जाते है।
भगवत्पाद शकराचार्य ने इसका विवेचन करते हुए अपने शिष्यों को समझाया है, कि जहां हाथों से शुभ कार्य नहीं होतावहां "नारायण हृदय" का पाठ करने से शुभता का भाव उत्पन्न हो जाता है। इसके माध्यम से लोगों के प्रति मैत्री भावनादया और मन में पूण शान्ति अनुभव होती है, "नारायण हृदय" का नित्य एक पाठ करने से घर में सम्पूर्ण सिद्धियां औरसफलता अनुभव होती है। केवल यही एक ऐसा प्रयोग है, जिसके द्वारा बुद्धि की प्रखरता पाती है, फलस्वरूप मानवजीवन की निरन्तर उन्नति होती रहती है, जहां मेरी बुद्धि काम नहीं करती वहां यह हृदय मेरी बुद्धि बन कर मेरी इच्छा पूरीकरता है, जहां मेरा बल बेकार हो जाता है, वहां यह नारायण हृदय "विजया" बन कर विजय श्री मेरे गले में पहनाती है, यह "नारा- यण हृदय" कहीं पर लक्ष्मी के रूप में, कहीं सरस्वती तो कहीं चण्डी के रूप में सहयोगी बनता है। इसकेमाध्यम से साधक धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों को श्रनायास प्राप्त कर लेता है ।
इस स्तोत्र की शक्तिमत्ता सिद्ध करते हुए देवी भाग- वत में बताया गया है।
कीतिर्मतिः स्तृति-गती करूणा दया त्वम् । श्रद्धा धृतिश्च वसुधा कमला जया च ।।
पुष्टिः कलाऽथ विजया गिरिजा जया त्वम् । तुष्टिः प्रभा त्वमसि बुद्धिरूपा रमा च ।।
अर्थात् यही (नारायण हृदय) कोति है, सुबुद्धि है: करूणा और दया है, लक्ष्मी और विजय है, पुष्टि और तुष्टि है, तथाजीवन में पूर्ण सिद्धि और सफलता है।
नारायण हृदय प्रयोग
इसका प्रयोग दो प्रकार से हो सकता है, एक तो साधक नित्य इसका पाठ करे, और १०८ दिन तक पाठ करे, तो पूर्णसफलता प्राप्त होती है, दूसरा किसी भी
गुरूवार को प्रातः स्नान कर शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण कर इस नारायण हृदय स्तोत्र के १०८ पाठ कर फिर किसी ब्राह्मण कोया कन्या को भोजन करावे तो यह साधना सिद्ध होती है।
तीसरे किसी भी गुरूवार को इस 'नारायण हृदय' का निरन्तर उच्चारण करते हुए १००८ घृन की आहुतियां यज्ञ में दे, तोउसके सारे मनोरथ पूर्ण होते है, और जीवन में तत्क्षण सफलता प्राप्त होती है ।
साधक अपने पूजा स्थान में भगवान "नारायण" का सुन्दर चित्र स्थापित कर दे, और षोडसोपचार पूजन करके फिरउसके सामने यह साधना प्रारम्भ करें । इस साधना के लिए यों तो किसी भी गुरूवार को प्रयोग किया जा सकता है ।साधक चाहें तो सोलह गुरूवार को अर्थात् प्रत्येक गुरूवार को इस 'नारायण हृदय' के १०८ पाठ करे,
फिर अगले गुरूवार को पुनः पाठ करे, इस प्रकार सोलह गुरूवार तक ऐसा करने से 'नारायण हृदय' पुरश्चरण सम्पन्नहोता है, और उसकी समस्त इच्छाओं की पूर्णत तत्क्षण और निश्चित हो जाती है।
यदि विशेष सिद्धि या किसी विशेष कार्य को तत्क्षण ही सम्पन्न करना हो, तो साधक शुक्रवार की रात को दीपक जलाकर हाथ में संकल्प ले कर कहे कि मैं अनुक कार्य की तत्क्षण सफलता के लिए यह प्रयोग सम्पन्न कर रहा हूं और उसीरात्रि को इस 'नारायण हृदय' के १०८ पाठ सम्पन्न कर ले, तो तुरन्त ही उसे सबंधित काम के अनुकूल फल प्राप्त होजाते है ।
श्रागे के पृष्ठों में मैं कर न्यास, ध्यान, श्रादि देता हुआ "नारायण हृदय" को स्पष्ट कर रहा हूं ।
॥ नारायण हृदयम् ।।
Σ
श्री गणेशाय नमः ।
ॐ अस्य श्रीनारायणहृदयस्तोत्रमन्त्रस्य भार्गव ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्री लक्ष्मीनारायणो देवता; श्रीलक्ष्मीनारायणप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।
अथ करन्यासः
ॐ नारायणः परं ज्योतिरित्यंगुष्ठाभ्यां नमः । ॐ नारायणः परं ब्रह्मति तर्जनीभ्यां नमः । ॐ नारायणः परो देवेतिमध्यमाभ्यां नमः । ॐ नारायणः परं घामेति श्रनामिकाभ्यां नमः । ॐ नारायणः परो धर्म इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐविश्व नारायणः पर इति करतलकरपृष्ठाभ्यां
अथ ध्यानम्
उद्यदादित्यसङ्काशं पीतवाससमच्युतम् । शङ्खचक्रगदापाणि ध्यायेल्लक्ष्मीपति हरिम् ।।
ॐ नमो भगवते नारायणाय इति मंत्र जपेत् ।
श्री वेदव्यास उवाच
श्री मन्नारायणो ज्योतिरात्मा नारायणः परः । नारायणः परं ब्रह्म नारायण नमोऽस्तु ते ॥१॥ नारायण. परो देवो दातानारायणः परः । नारायणः परो ध्याता नारायण नमोऽस्तु ते ।।२।। नारायणः परं धाम ध्याता नारायणः परः । नारायणःपरोधर्मों नारायण नमोऽस्तु ते ॥३॥ नारायणपरो धर्मो विद्या नारायणः परा। विश्व नारायणः साक्षान्नारायण नमोऽस्तु ते॥४॥
नारायणाद्विधिर्जातो जातो नारायणच्छिवः । जातो नारायणादिन्द्रो नारायण नमोऽस्तु ते ॥५॥
रविर्नारायणं तेजश्चन्द्रो नारायणं महः । वह्निर्नारायणः साक्षान्नारायण नमोऽस्तु ते ॥ ६।।
नारायण उपास्यः स्याद्गुरुर्नारायणः परः । नारायणः परो बोधो नारायण नमोऽस्तु ते ॥७॥
नारायणः फलं मुख्यं सिद्धिर्नारायणः सुखम् । सर्वं नारायणः शुद्धो नारायण नमोऽस्तु ते ॥८॥
नारायणस्त्वमेवासि नारायण हृदि स्थितः । प्रेरकः प्रेयमाणानां त्वया प्रेरितमानसः ॥६॥
त्वदाज्ञां शिरसा धृत्वा जपामि जनपावनम् । नानोपासनमार्गाणां भावकृद्भावबोधकः ॥१०॥
भावकृद्भावभूतस्त्वं मम सौख्यप्रदो भव । त्वम्मायामोहितं विश्व त्वयैव परिकल्पितम् ॥११॥
त्वदधिष्ठानमात्रेण सैव सर्वार्थकारिणी । त्वमेनैतां पुरस्कृत्य मम कामान् समर्पय ॥१२॥
न मे त्वदन्यः सन्त्राता त्वदन्यं न हि दैवतम् । त्वदन्यं न हि जानामि पालकं पुण्यरूपकम् ॥१३।।
तावत्सांसारिको भावो नमस्ते भावनात्मने । तत्सिद्धिदो भवेत्सद्यः सर्वथा सर्वदा विभो ॥१४॥
पापिनामहमेकाग्र दयालूनां त्वमग्रणीः । दयनीयो मदन्योऽस्ति तव कोऽत्र जगत्त्रये ॥१५॥
प्रार्थनादशकं चैव मूलाष्टकमथापि वा। यः पठेच्छृणुयान्नित्यं तस्य लक्ष्मीः स्थिरा भवेत् ॥१६॥
पापसंघपरिक्रान्तः पापात्मा पापरूपधृक् । त्वदन्यः कोऽत्र पापेभ्यस्राता मे जगतीतले ॥१७॥
त्वमेव विद्या च गुरुस्त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव । १८ ।।
त्वयाऽप्यहं न सृष्टश्चैन्न स्वात्तव दयालुता । आमयो वा न सृष्टश्चेदोषघस्य वृथोदयः ॥१६॥
नारायणस्य हृदयं सर्वाभीष्टफलप्रदम् । लक्ष्मीहृदयकं स्तोत्रं यदि चेतद्विनाकृतम् ॥२०॥
तत्सर्वं निष्फल प्रोक्त लक्ष्मीः क्रुध्यति सर्वतः । एतत्सङ्कलितं स्तोत्र सर्वाभीष्टफलप्रदम् ॥२१॥
लक्ष्मीहृदयकं स्तोत्रं त्था नारायणात्मकम् । जपेद्यः सङ्कलीकृत्य सर्वाभीष्टमवाप्नुयात् ॥२२॥
नारायणस्य हृदयमादौ जप्त्वा ततः परम् । लक्ष्मीहृदयकं स्तोत्रं जपेन्नारायणं पुनः ॥२३॥
पुनर्नारायणं जप्त्वा पुनर्लक्ष्मीहृइं जपेत् । पुनर्नारायणहृदं सम्पुटीकरणं जपेत । एवं मध्ये द्विवारेण जपेल्लक्ष्मीहृद हि तत॥२४॥
लक्ष्मीहृदयकं स्तोत्रं सर्वमेतत्प्रकाशितम् । तद्वज्जापादिकं कुर्यादेतत्सङ्कलितं शुभम् ॥२५।।
स सर्वकाममाप्नोति श्रधिव्याधिभयं हरेत । गोप्यमेतत्सदा कुर्यान्न सर्वत्र प्रकाशयेत ॥२६॥
इति गुह्यतम शास्रमुक्त प्रह्मादिकैः पुरा । तस्मात्सर्गप्रयत्नेन गोपयेत्साधयेत्सुषीः ॥२७॥
तत्रैतत्पुस्तकं तिष्ठेल्लक्ष्मीनारायणात्मकम् । भूतप्रेतपिशाचांश्च बेतालान्नाशयेत्सदा ॥२८॥
लक्ष्मीहृदयप्रोक्तन विधिना साधयेत्सुधीः । भृगुवारे च रात्रौ तु पूजयेत्साधयेत्सुषीः ॥२६॥ गोपनात्साधनाल्लोके धन्योभवति तत्त्ववित् । नारायणहृदं नित्यं नारायण नमोऽस्तु ते ॥३०॥
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा
।। इत्यथर्वण रहस्योत्तरभागे नारायणहृदयं सम्पूर्णम् ॥
त्वमेव ।
मणिपुर भेदन
एक बार गुरुदेव ने बताया कि योग में मणिपुर चक्र का विशेष महत्त्व है। क्योंकि इसके भेदन से अमृत तत्त्व की प्राप्तिहोती है और पूर्णत: निरोग एवं स्वस्थ बना रहता है।
योग के माध्यम से जहां मणिपुर चक्र भेदन किया जा सकता है, वहीं रुद्रयामल तन्त्र में एक विशेष स्तोत्र के माध्यम सेभी मणिपुर चक्र भेदन का स्पष्टीकरण किया है। यदि नित्य इस स्तोत्र का 108 बार पाठ किया जाय और मात्र 21 दिनऐसा किया जाय तो सीधे ही मणिपुर चक्र में साधक की स्थिति बन जाती है।
यह सब ध्वनि का महत्त्व है और इस स्तोत्र में शब्दों का सगुम्पन कुछ इस प्रकार से है कि उससे शरीर के अन्दर एकविशिष्ट आवर्तन होता है और उसके माध्यम से मणिपुर चक्र भेदन हो जाता है। यह अमृत तत्त्व कहलाता है, और ऐसीस्थिति में पूरे शरीर में स्वत: अमृत निर्माण होता रहता है फलस्वरूप योगी पर रोग एवं वृद्धावस्था का कोई प्रभाव व्याप्तंनहीं होता।
गुरुदेव ने कृपा कर यह मणिपुर भेदन स्तोत्र बताया:
ओमनम: परमकल्याण नमस्ते विश्वभावन । विश्वात्मने विचिन्त्याय गुणाय निर्गुणाय च ।
नमस्ते पार्वतीनाथ उमाकान्त
नमोस्तुते ।।
धर्माय ज्ञानमक्षाय नमस्ते सर्वयोगिने ।
नमस्ते कालरूपाय त्रैलोव-यरक्षणाय च।
गोलोक्यातकायैव चण्डेशाय
नमोस्तुते ।।
सद्योजाताय देवाय नमस्ते शूलधारिणे ।
कालान्ताय च कान्ताय चैतन्याय नमोनमः ।
कुलात्मकाय कोलाय चद्रशेखर ते नमः ।
उमानाथ नमस्तुभ्यं योगीन्द्राय नमो नमः।
सर्वाय सर्वपूज्याय ध्यानस्थाय गुणात्मने । पार्वती-प्राणानाथाय नमस्ते परमात्मने ।।
मैंने अपने जीवन में इस प्रयोग को सम्पन्न किया है और अनुभव किया है कि इसे सिद्ध करने के बाद जीवन-भर किसीप्रकार का कोई रोग और बुढ़ापा व्याप्त नहीं होता। प्रत्येक गृहस्थ के लिए यह गोपनीय और महत्त्वपूर्ण प्रयोग है।
√●वास्तु स्थान यी शरीर का कवचीकरण करना चाहिये। इसके लिये लोटे में जल लेकर हाथ में कुशा धारण करईशान कोण से प्रारंभ कर दक्षिणा क्रम से निम्न मन्त्रों द्वारा जल का प्रोक्षण (छिड़काव) करना चाहिये।
√★★अथ मन्त्रः
★ १. अश्मवर्म मेऽसि यो मा प्राच्या दिशोऽघायुर् अभिदासात् ।
एतत् स ऋच्छात् ॥
★२. अश्मवर्म मेऽसि यो मा दक्षिणाया दिशोऽघायुर् अभिदासात् ।
एतत् स ऋच्छात् ॥
★३.अश्मवर्म मेऽसि यो मा प्रचीच्या दिशोऽघायुर अभिदासात् ।
एतत् स ऋच्छात् ॥
★४. अश्मवर्म मेऽसि यो मा उदीच्या दिशोऽधायुर् अभिदासात् ।
एतत् स ऋच्छात् ॥
★५. अश्मवर्म मेऽसि यो मा ध्रुवाया दिशोऽधायुर् अभिदासात् ।
एतत् स ऋच्छात् ॥
★६. अश्मवर्म मेऽसि यो मा ऊर्ध्वाया दिशोऽघायुर् अभिदासात् ।
एतत् स ऋच्छात् ।।
★७. अश्मवर्म मेऽसि यो मा दिशामतर्देशेभ्योऽघायुर् अभिदासात् ।
एतत् स ऋच्छात् ॥
( अथर्व ५/१०/१-७)
√●अघायुः = अघ (पाप) + आयु (संलग्न) = पापयुक्त, पापकर्मा ।
√●अभिदासात् = नष्ट करे, हानि पहुँचाये। (दस् उपक्षये + आ. लि) ।
√●ऋच्छात् = नष्ट हो जावे, हानि के प्राप्त करे। (अ हिंसायाम + आ. लि)।
√●अश्म वर्म = अश्मस्य (पत्थर का) वर्म (कवच, आवरण) ।
√● कठोर वा अभेद्य आवरण, रक्षा तत्र ।
√● मन्त्र में दिशाओं के अधिपति आकाश ब्रह्म से प्रार्थना की गई है। यह वास्तुस्थान का देवता है जो दिग्पतिरूप मेंअन्दर बाहर विद्यमान है।
√★★मन्वार्थ है-
√●१- है प्राच्य (पूर्व) दिशा के स्वामी इन्द्र । जो मेरे वास्तु को पूर्व दिशा से नष्ट करे, वह पापात्मा अपने इस कर्म सेस्वयं नष्ट हो जाय।
√●२- हे दक्षिण दिशा के स्वामी यम । जो पापकर्मा मेरे वास्तु को दक्षिण दिशा में क्षति पहुंचाये, वह अपने इस कृत्यसे स्वयं क्षति को प्राप्त होवे।
√●३-हे पश्चिम दिशा के स्वामी वरुण। जो पापी मेरे वास्तु को प्रतीची दिशा से नष्ट करता है, वह अपने इस कुकृत्यसे स्वयं विनष्ट होवे ।
√● ४- हे उदीची (उत्तर) दिशा के स्वमी कुबेर । जो पापिष्ठ मेरे वास्तु को उत्तर दिशा से हानि पहुँचावे,वह अपने इसदुष्कर्म से स्वयं ध्वस्त हो जाय।
√● ५. हे ध्रुवा (नीचे के अधः) दिशा के स्वामी अनन्त । जो पापपरायण मनुष्य मेरे वास्तु को ध्वस्त करना चाहता है, वह अपने इस कर्म से स्वयं ध्वस्त हो जाय।
√●६- हे उर्ध्वा (ऊपर की) दिशा के स्वामी ब्रह्मा । जो ईर्ष्यालु शठ मेरे वास्तु को ऊपर से गिराना चाहता है, वह अपनेइस अशुभ कर्म से स्वयं अशुभत्व को प्राप्त होवे ।
√●७- हे दिशादिशाओं (कोणों ईशान, आग्नेय, नैर्ऋत्य, वायव्य के स्वामी (ईश, वह्रि निर्ऋत,मरुत) दुरात्मा मेरेवास्तु को इन सभी कोण दिशाओं से हानि पहुँचाना चाहता है, वह अपने इस कुकर्म द्वारा स्वयं ही हानि को प्राप्त होवे।
√●यह वैदिक कवच अमोष है जो यज्ञोपवीती श्रोत्रिय ब्राह्मण इन मन्त्रों से समस्त वास्तु स्थान अथवा शरीर पर जलका छिड़काव कुशाम से करता है, वह अभय को प्राप्त होता है, अवरोध नष्ट होते हैं, अवरोध कर्ता धराशायी होता है।जल का प्रोक्षण एक स्थान पर स्थित हो कर दसों दिशाओं में करना चाहिये। यही साधु है। व्यक्तिगत रक्षा के लियेअनुष्ठानादि के अवसर पर भी यह समुपयोगी है।
पद्मावती स्तोत्र
यह स्तोत्र संसार का श्राश्चर्यजनक महत्वपूर्ण स्तोत्र है, जो एक साथ धन धान्य यशं, कीति, प्रसिद्धि उन्नति, सम्मानऔर दीर्घायु, सुख-स्वास्थ्य आदि देने में समर्थ है। जैन साधुश्रों के मतानुसार यदि कोई व्यक्ति प्रातःकाल सिर्फ एकबार इस स्तोत्र का पाठ कर लेता है, तो भी वह श्राश्चर्यजनक सफलता अनुभव करता है, यह स्तोत्र आर्थिक उन्नति देनेमें रामबाण की तरह है, जिस का प्रभाव कभी भी खाली नहीं जाता । प्रत्येक साधक को सिर्फ एक बार इस स्तोत्र कापाठ अवश्य करना चाहिए, कई बड़े उद्योगपति दीपावली की रात को मात्र इस स्तोत्र के १०८ बार पाठ करते हैं, और वेवर्ष भर अतुलनीय व्यापार-वृद्धि एवं आर्थिक उन्नति प्राप्त करते हैं, लक्ष्मी प्रदायक स्तोत्रों में यह स्तोत्र सिरमौर है ।पद्मावती स्तोत्र श्रीमद् गीर्वाण चक्रस्फुट मुकुट तटि दिव्य माणिक्यमाला । ज्योति र्जाला कराला स्फुरित मुकुरिका दृष्टपादार बिन्दे ।। व्याघ्रोरूल्का सहस्र स्फुरज्ज्वलन शिखालोलपाशां कुशाड् ये । आं क्रों ह्रीं मन्त्र रूपे क्षपित कलि मलेरक्षमां देवि पद्म ।। १ ।। २ भित्वापातालमूलं चल चलित चलीते व्याल लीला कराले । विद्य च्छण्ड प्रचन्ड प्रहरणसहितैःसद्भु जैस्तर्जयन्ति ।। देत्यैन्द्रं क्रू रदंष्ट्रा किटकिट घटितेस्पष्ट भीमाट्टहासे । माया जो मूत माला कुहरित गगने रक्षमा देवोपद्मे ।। २ ।। ३ कूजत्को दंड कांडो डमर विधुरित क्रूर घोरोप सर्ग । दिव्यं वज्रातपत्रं प्रगुण मणि रणत्र्कािकरणोक्वाणरम्यं ॥ भासद्ध डूर्य दंड मदन विजयिनो विभ्रतीपार्श्व भर्तु । सादेवो पद्म हस्ता विघटयतु महा डामरं मामकोनं ।। ३।। ४ भृंगी काली कराली परिजन सहिते चण्डि चामुण्डि नित्ये । नां क्षीं क्षु क्षः क्षणाद्ध क्षतरिपुजिवहे ह्रीं महामन्त्र रूपे।। भ्रां श्रीं भ्रू श्रः भृगसंग भृकुटि पुट तटे त्रासि तोछाम दैत्ये । झां झीं झ झः प्रचण्डे, स्तुति शत मुखरे रक्ष मां देवो पद्म ।।४ ।। ५ चंचत्कांची कलापे स्तन तट विलुठ त्तार हारावली के । प्रोत्फुल्लत्पारिजात द्रुम कुसुम महा मंजरी पूज्यपादे ।।द्रां द्रीं क्लीं ब्लू व्रीं समेते भुवन वसकरी क्षोभिणी द्राविणीत्वं । आं ऐं ओं पद्महस्ते कुरु कुरु घटते रक्षमां देवो पद्मे ।। ५।। ६ लीला व्यालोल नीलोत्पल दलनयने प्रज्वल द्वाडवाग्निः । उद्यज्ज्वाला स्फुलिंग स्फुरु दरूण करुदन वज्रांग हस्ते । ह्रां ह्रीं ह्र ह्रीं ह्रः हरति हर हर हूं कार भीमेक नादे । पद्मे पद्मासनस्थै व्यय नय दुरितं रक्षमां देवी वन्दे ।। ६ ।। ७ कोपं वंजं सं हं सः कुवलय कलितोद्दाम लीला प्रबंधे । झांझी भू भूः पवित्र शशि कर घवले प्रक्षरक्षीर गौरे ।। व्याल व्याबद्ध जुटेप्रबल बल महाकाल कूटं हरंति । हा हा हूं कार नादे कृत कर कमले रक्षमां देवी पद्मे ।। ७ ।। प्रतर्वाला वरस्मि छुरितबन महा सांद्रसिंदूर धूलो । संध्या रागारूणांगी त्रिदश वर वधू वंद्य पादार विन्दे ।। चंचच्चंडासिधारा प्रहतरिपु कुलेकुडलो धृष्ट गंडे । श्रां श्रों श्रं श्रः स्मरंति मद गज गमने रक्षमां देवो पद्म ।। ८ ।। ε विस्तीणें पद्मपीठे कमल दलनिवासोचिते काम गुप्ते । लां तां श्रीं श्रीं समेते प्रहसित वदने दिव्यहस्ते प्रशस्ते ।। रक्ते रक्तोत्पलांग, प्रतिवहसिसदावाग्भवं काम बीजं ।। हंसारूढे त्रिनेत्रे भगवति वरदे, रक्षमां देवी पद्मे ।। ६ ।। १० षट्कोणे चक्रमध्ये प्रणव वरयुतेवाग्भवे काम राजे । हंसारूढे सविन्दो विकसित कमले कणिकाग्र निधाय ।। नित्ये क्चिन्ने मदाद्रे द्रवयसि सततं सां कुसेपास हस्ते । ध्यानात् संक्षोभयन्ति त्रिभुवन वशकृद् रक्षमां देवी पमे ।। १० ।। ११ आं क्रौं ह्रीं पंच वर्णं लिखित प्रवर षट्चक्र मध्ये हस क्लीं । क्रों कों पत्रां तराले स्वरपरि कलिते वायुना वेष्टि तांगी ।। ह्रीं वेष्टयां रक्तपुष्प जंपित दल महाक्षोभणी द्राविणीत्वं । त्रैलोक्यं चालयति सपदि जनहिते रक्षमां देवी पद्मे ।। ११ ।। १२ ब्रह्माणी कालरात्री भगवती वरदेचंडि चामुण्डि नित्ये । मातः गांधारि गौरी धृति मति विजये कोति ह्रीं स्तुत्य पद्म ।। संग्रामे शत्रु मध्ये ज्वलद नल जलेवेष्टि तेन्यैः सुरास्त्रैः । क्षां क्षों क्षु क्षः क्षणार्धे क्षतरिषु निबहे रक्षमां देवी पड्मे ॥ १२ ॥
खङ्ग कोदंड कांडे मुसल हलहरै बाण नाराच चक्र । शक्त्या सल्य त्रिशूले वर फण ससरै मुद्गरैर्मुष्टि दंडे ॥ पासैपाषाणवृक्षै वर गिर सहितै रिष्ट शस्त्रै र्माल्यैः । दुष्टानां दारति वरभुज ललिते रक्षमां देवी पद्मे ॥१३॥ १४ यस्या देवे नरेंद्रैरयक्षर्वर मरपतिगणैः किन्नरै दानवेन्द्रः । सिद्ध नाँगेन्द्र मुकुट तटै धृष्ट पादारविन्देः । सौम्ये सौभाग्य लक्ष्मी दलितकलिमले पद्म कल्याणमाले । अंबे काले समाधि प्रकट्य परमं रक्षमां देवी पद्मे ।। १४ ।। १५ यूपे श्चंदन तंदुले शुभमहागंधेश्च मन्त्रालिक । नानावर्ण फलैः विचित्र सरसैः दिव्यं मनोहारिभिः ।। देवी पद्मावती दीपै नैवेद्य वस्त्रैर नुभवनु करैभक्ति युक्त प्रदत्वा । राज्यं हेत्वां ग्रहाण भगवति वरदे रक्षमां देवी पद्मे ।। १५ ।। १६ वनस्थिते परि लसत्यमाक्षिपद्मालये ।। मातः पद्मनि पद्मराग रुचिरे पद्म पद्म पद्मप्रसूना नने । पद्मा मोदिनी पद्मोल्लासिनि पद्मराग रुचिरे पद्मप्रसूनाचिते । पद्म नाभि निलये पद्मालयं पाहि मां ।। १६ ।। १७ दिव्य स्तोत्रं पवित्रं पटुतर पठितं भक्तिपूर्व त्रिसंध्यं ।लक्ष्मी सौभाग्य रूपं दलित कलिमलं मंगलं मंगलानां ।। पूज्या कल्याण मालां जनयति सतत पार्श्वनाथ प्रसादात् । देविपद्मावती नः हसित बदना यस्तुता दासवेन्द्र ।। १७ ।। १८ या देवि त्रिपुरा पुरात्रयगता शीघ्रासि शोधप्रदा । या देवीसमया समस्त भुवने संगीयते कामदा ।। तारामान विमर्दनी भगवति देवी च पद्माबती । सास्ता सर्वगतास्त्वमेव नियतांमातेति तुभ्यं नमः ॥ १८ ॥
१४. बिच्छू उतारने का मन्त्र इस मन्त्र को पढ़ता जाय और बिच्छू काटे हुए स्थान पर झाड़ा देता जाय तो बिच्छू का जहरउतर जाता है । मन्त्र ॐ सिर्वार फुट स्वाहा ।
४- विद्या प्राप्ति मन्त्र यदि बालक कमजोर हो, पढ़ाई में अच्छे अंक प्राप्त न होते हों, तो भोजपत्र पर रक्त चंदन से इसमन्त्र को लिखकर ताम्बे के ताबीज में डालकर काले धागे से उसके गले में पहना दे तो विद्या प्राप्ति हो । मन्त्र ॐ ह्रींग्र-सि-ग्रा-उ-सा नमो वद वद वाद वादिनी सत्यवा दिनी मनुजा सुरसद सी अ-सि-ग्रा उ-सा नमः ।
३- भूत उतारने का मन्त्र यदि किसी को भूत या प्रेत लग गया हो तो उसको सामने बेठाकर दाहिनी मुट्ठी बांधकर १०८ बारमंत्र पढ़ और उसके सामने मुट्ठी खोलकर फूंक दे तो भूत-प्रेत उतर जाता है। मन्त्र ॐ ह्रीं अ-सी-आ-आ-ऊ-सासर्वदुष्टांनां स्तम्भय अन्धय अन्धय कुरु कुरु ह्रीं भूतादि ठः ठः ठः a
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