Thursday 25 August 2022

भाद्रपद कुशोत्पाटिनी (पिठौरी) अमावस्या विशेष

 भाद्रपद कुशोत्पाटिनी (पिठौरी) अमावस्या विशेष

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हिन्दू धर्म में अमावस्या की तिथि पितरों की आत्म शांति, दान-पुण्य और काल-सर्प दोष निवारण के लिए विशेष रूप से महत्व रखती है। चूंकि भाद्रपद माह भगवान श्री कृष्ण की भक्ति का महीना होता है इसलिए भाद्रपद अमावस्या का महत्व और भी बढ़ जाता है। इस अमावस्या पर धार्मिक कार्यों के लिये कुशा एकत्रित की जाती है। कहा जाता है कि धार्मिक कार्यों, श्राद्ध कर्म आदि में इस्तेमाल की जाने वाली कुशा यदि इस दिन एकत्रित की जाये तो वह पुण्य फलदायी होती है। अध्यात्म और कर्मकांड शास्त्र में प्रमुख रूप से काम आने वाली वनस्पतियों में कुशा का प्रमुख स्थान है। इसका वैज्ञानिक नाम Eragrostis cynosuroides है। इसको कांस अथवा ढाब भी कहते हैं। जिस प्रकार अमृतपान के कारण केतु को अमरत्व का वर मिला है, उसी प्रकार कुशा भी अमृत तत्त्व से युक्त है। 


अत्यन्त पवित्र होने के कारण इसका एक नाम पवित्री भी है। इसके सिरे नुकीले होते हैं। इसको उखाड़ते समय सावधानी रखनी पड़ती है कि यह जड़ सहित उखड़े और हाथ भी न कटे। कुशल शब्द इसीलिए बना।


इस वर्ष कुशोत्पाटिनी अमावस्या कुश एकत्रित करने के लिये 26/27 सितम्बर को मानी जायेगी। कुशोत्पाटिनी अमावस्या मुख्यत: पूर्वान्ह में मानी जाती है।


भाद्रपद्र कुशोत्पाटिनी अमावस्या व्रत में किये जाने वाले धार्मिक कर्म

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स्नान, दान और तर्पण के लिए अमावस्या की तिथि का अधिक महत्व होता है।भाद्रपद कुशोत्पाटिनी अमावस्या के दिन किये जाने वाले धार्मिक कार्य इस प्रकार हैं।


👉 इस दिन प्रातःकाल उठकर किसी नदी, जलाशय या कुंड में स्नान करें और सूर्य देव को अर्घ्य देने के बाद बहते जल में तिल प्रवाहित करें।


👉 नदी के तट पर पितरों की आत्म शांति के लिए पिंडदान करें और किसी गरीब व्यक्ति या ब्राह्मण को दान-दक्षिणा दें।


👉 इस दिन कालसर्प दोष निवारण के लिए पूजा-अर्चना भी की जा सकती है।


👉 अमावस्या के दिन शाम को पीपल के पेड़ के नीचे सरसो के तेल का दीपक लगाएं और अपने पितरों को स्मरण करें। पीपल की सात परिक्रमा लगाएं।


👉 अमावस्या शनिदेव का दिन भी माना जाता है। इसलिए इस दिन उनकी पूजा करना जरूरी है।


भाद्रपद अमावस्या का महत्व

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पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि:।

कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया॥


हर माह में आने वाली अमावस्या की तिथि का अपना विशेष महत्व होता है। हिन्दू धर्म में कुश के बिना किसी भी पूजा को सफल नहीं माना जाता है। भाद्रपद अमावस्या के दिन धार्मिक कार्यों के लिये कुशा एकत्रित की जाती है, इसलिए इसे कुशग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा जाता है। वहीं पौराणिक ग्रंथों में इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा गया है। यदि भाद्रपद अमावस्या सोमवार के दिन हो तो इस कुशा का उपयोग 12 सालों तक किया जा सकता है।


किसी भी पूजन के अवसर पर पुरोहित यजमान को अनामिका उंगली में कुश की बनी पवित्री पहनाते हैं। शास्त्रों में 10 प्रकार के कुश का वर्णन है। 


कुशा:काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:।

गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा:।।


मान्यता है कि घास के इन दस प्रकारों में जो भी घास सुलभ एकत्रित की जा सकती हो इस दिन कर लेनी चाहिये। लेकिन ध्यान रखना चाहिये कि घास को केवल हाथ से ही एकत्रित करना चाहिये और उसकी पत्तियां पूरी की पूरी होनी चाहिये आगे का भाग टूटा हुआ न हो। इस कर्म के लिये सूर्योदय का समय उचित रहता है। 


इनमें जो भी आपको मिल सके, उसे पूजा के समय या धार्मिक अनुष्ठान के समय ग्रहण करें।


ऐसे कुश का प्रयोग वर्जित

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जिस कुश का मूल सुतीक्ष्ण हो, अग्रभाग कटा न हो और हरा हो, वह देव और पितृ दोनों कार्यों में वर्जित होता है।


कुश उखाड़ने की प्रक्रिया

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अमावस्या के दिन दर्भस्थल में जाकर व्यक्ति को पूर्व या उत्तर मुख करके बैठना चाहिए। फिर कुश उखाड़ने के पूर्व निम्न मंत्र पढ़कर प्रार्थना करनी चाहिए।


कुशाग्रे वसते रुद्र: कुश मध्ये तु केशव:।

कुशमूले वसेद् ब्रह्मा कुशान् मे देहि मेदिनी।।


'विरञ्चिना सहोत्पन्न परमेष्ठिन्निसर्गज।

नुद सर्वाणि पापानि दर्भ स्वस्तिकरो भव।।


मंत्र पढ़ने के बाद "ऊँ हूँ फट्" मंत्र का उच्चारण करते कुशा दाहिने हाथ से उखाड़ें। इस वर्ष आपके घर जो भी पूजा या धार्मिक कार्यों का आयोजन हो, उसमें इस कुश का प्रयोग करें। यह पूरे वर्षभर के लिए उपयोगी और फलदायी होता है।


कुशा:काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:।

गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा:।।


यह पौधा पृथ्वी लोक का पौधा न होकर अंतरिक्ष से उत्पन्न माना गया है। मान्यता है कि जब सीता जी पृथ्वी में समाई थीं तो राम जी ने जल्दी से दौड़ कर उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु उनके हाथ में केवल सीता जी के केश ही आ पाए। ये केश राशि ही कुशा के रूप में परिणत हो गई। सीतोनस्यूं पौड़ी गढ़वाल में जहाँ पर माना जाता है कि माता सीता धरती में समाई थी, उसके आसपास की घास अभी भी नहीं काटी जाती है।


भारत में हिन्दू लोग इसे पूजा /श्राद्ध में काम में लाते हैं। श्राद्ध तर्पण विना कुशा के सम्भव नहीं हैं । 


कुशा से बनी अंगूठी पहनकर पूजा /तर्पण के समय पहनी जाती है जिस भाग्यवान् की सोने की अंगूठी पहनी हो उसको जरूरत नहीं है। कुशा प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावस्या की तोडी कुशा पूरे महीने काम दे सकती है और भादों की अमावस्या के दिन की तोडी कुशा पूरे साल काम आती है। इसलिए लोग इसे तोड के रख लते हैं। 


केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं। रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापना में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म, दशविध स्नान आदि में किया जाता है।


केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है। देव पूजन, यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं। कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है। पूजा समय में यजमान अनामिका अंगुली में कुशा की नागमुद्रिका बना कर पहनते हैं। 


कुशा आसन का महत्त्व

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धार्मिक अनुष्ठानों में कुश (दर्भ) नामक घास से निर्मित आसान बिछाया जाता है। पूजा पाठ आदि कर्मकांड करने से व्यक्ति के भीतर जमा आध्यात्मिक शक्ति पुंज का संचय कहीं लीक होकर अर्थ न हो जाए, अर्थात पृथ्वी में न समा जाए, उसके लिए कुश का आसन विद्युत कुचालक का कार्य करता है। इस आसन के कारण पार्थिव विद्युत प्रवाह पैरों के माध्यम से शक्ति को नष्ट नहीं होने देता है।


इस पर बैठकर साधना करने से आरोग्य, लक्ष्मी प्राप्ति, यश और तेज की भी वृद्घि होती है और साधक की एकाग्रता भंग नहीं होती। कुशा की पवित्री उन लोगों को जरूर धारण करनी चाहिए, जिनकी राशि पर ग्रहण पड़ रहा है। कुशा मूल की माला से जाप करने से अंगुलियों के एक्यूप्रेशर बिंदु दबते रहते हैं, जिससे शरीर में रक्त संचार ठीक रहता है। 


यह भी कहा जाता है कि कुश के बने आसन पर बैठकर मंत्र जप करने से सभी मंत्र सिद्ध होते हैं। नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमानते। -देवी भागवत 19/32 अर्थात कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झडते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा नहीं होता। उल्लेखनीय है कि वेद ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है। 


आपको पता होगा कि कुश के ऊपर अमृत कलश रखा गया था। इसलिए इस पर अमृत का संयोग भी है। रक्षा करने वाले नागों ने जब कुश चाटने शुरू किये तब जीभ कुशों के कारण फटी थी उसकी कथा इस प्रकार से है।

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सभी साँप और गरुड़ दोनों सौतेले भाई थे, लेकिन साँपों की माँ कद्रू ने गरुड़ की माँ विनता को छल से अपनी दासी बना लिया। सभी साँपों ने गरुड़ के सामने यह शर्त रखी कि अगर वह स्वर्ग से उनके लिए अमृत लेकर आयेगा तो उसकी माँ को दासता से मुक्त कर दिया जायेगा। यह सुनकर गरुड़ ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और सभी को परास्त कर दिया। युद्ध में स्वर्ग के देवता इन्द्र को भी उसने मारकर मूर्छित कर दिया। उसका यह पराक्रम देखकर भगवान विष्णु बहुत प्रसन्न हुए और उसे अपना वाहन बना लिया। गरुड़ ने भगवान् विष्णु से यह वरदान भी माँग लिया कि वह हमेशा अमर रहेगा और उसे कोई नहीं मार सकेगा।


अमृत लेकर गरुड़ वापस धरती पर आ रहा था कि तभी इंद्र ने उस पर अपने वज्र से प्रहार कर दिया। गरुड़ को अमरता का वरदान मिला था, इसलिए उस पर वज्र के प्रहार का कोई असर नहीं हुआ, लेकिन गरुड़ ने इंद्र से कहा कि आपका वज्र दधीचि के हड्डियों से बना हुआ है, इसलिए मैं उनके सम्मान में अपना एक पंख गिरा देता हूँ। यह देखकर इंद्र ने कहा कि तुम जो अमृत साँपों के लिए ले जा रहे हो, उससे वह पूरी सृष्टि का विनाश कर देंगे, इसलिए अमृत को स्वर्ग में ही रहने दो।


इंद्र की बात सुनकर गरुड़ ने कहा इस अमृत को देकर वह अपनी माँ को दासता से मुक्त कराना चाहता है। वह इन्द्र से कहता है- मैं इस अमृत को जहाँ रख दूंगा, आप वहाँ से उठा लीजियेगा। गरुड़ की यह बात सुनकर इंद्र बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि तुम मुझसे कोई वर मांगो। गरुड़ ने कहा कि जिन साँपों ने मेरी माँ को अपनी दासी बनाया है, वे सभी मेरा प्रिय भोजन बने। गरुड़ अमृत लेकर साँपों के पास पहुँचा और साँपों से बोला कि मैं अमृत ले आया हूं। अब तुम मेरी माँ को अपनी दासता से मुक्त कर दो। साँपों ने ऐसा ही किया और उसकी माँ को मुक्त कर दिया। गरुड़ अमृत को एक कुश के आसन पर रख कर बोलता है कि तुम सभी पवित्र होकर इसको पी सकते हो।


सभी साँपों ने मिलकर विचार किया और स्नान करने चले गये। दूसरी तरफ इंद्र वहुं घात लगाकर बैठे हुए थे। जैसे ही सभी सांप चले जाते हैं, इन्द्र अमृत कलश लेकर स्वर्ग भाग जाते हैं। जब साँप वापस आये तो उन्होंने देखा कि अमृत कलश कुश के आसन पर नहीं है, उन्होंने सोचा कि जिस तरह से हमने छल करके गरुड़ की माँ को अपनी दासी बनाया हुआ था, उसी तरह से हमारे साथ भी छल हुआ है। लेकिन उन्हें थोड़ी देर बाद ध्यान आता है कि अमृत इसी कुश के आसन पर रखा हुआ था, तो हो सकता है, इस पर अमृत की कुछ बूंदे गिरी हों। सभी सांप कुश को अपनी जीभ से चाटने लगते हैं और उनकी जीभ कुशों के कारण बीच से दो भागों में कट जाती है। अमृत कलश के स्पर्श के बाद से कुश और पवित्र भी माने जाते हैं।


कुशा की पवित्री का महत्त्व

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कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है। सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश प्राप्त होता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। कर्मकांड के दौरान यदि भूलवश हाथ भूमि पर लग जाए, तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में भी धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका दुष्परिणाम हमारे मस्तिष्क और हृदय पर पडता है।


पिथौरा अमावस्या

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भाद्रपद अमावस्या को पिथौरा अमावस्या भी कहा जाता है, इसलिए इस दिन देवी दुर्गा की पूजा की जाती है। इस संदर्भ में पौराणिक मान्यता है कि इस दिन माता पार्वती ने इंद्राणी को इस व्रत का महत्व बताया था। विवाहित स्त्रियों द्वारा संतान प्राप्ति एवं अपनी संतान के कुशल मंगल के लिये उपवास किया जाता है और देवी दुर्गा की पूजा की जाती है।


अमावस्या तिथि आरम्भ👉 26 अगस्त 2022 को दिन 12:23 से 


अमावस्या तिथि समाप्त 27 अगस्त को दिन 01:45 पर।



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Friday 5 August 2022

कृष्ण जन्माष्टमी व्रत कब रखें कैसे करें पूजन।

 


17तारीक बुधवार को भाद्रपद संक्रान्ति है।


2गते भाद्रपद 18 अगस्त गुरुवार को अष्टमी रात 9:22 से प्रारंभ होकर के दूसरे दिन शुक्रवार 19 तारीख रात को 11:00बजे समाप्त हो जाएगी। अतः यह व्रत शुक्रवार 19 तारीख का माना जाएगा तथा गुगा नवमी का पर्व 20 अगस्त शनिवार को मनाया जाएगा।

इसलिए वीरवार 18 तारिक 2गते भाद्रपद 9बजकर 22 से पूर्व अष्टमी लगने से पहले।भोजन कर लेना चाहिए। तथा 18तारिक शुक्रवार पुरे दिन का ब्रत रखना चाहिए।शनि बार उदय कालीन नवमी तिथि में उद्यापन करना चाहिए।

18 तारिक को गुरुवार2गते भाद्रपद लड्डु गोपाल वालरूप झुला झुलना  दान,कीर्तन करें।

19तारिक शुक्रवार 3गते भाद्रपद विक्रम संवत 2079 को जनमष्टमी ब्रत। रात्रि में श्री कृष्ण स्त्रोत पाठ ध्यान कीर्तन करके ।इन पुण्य अवसरों का लाभ उठाएं।




 दिनांक 18 अगस्त वीरवार 2गते भाद्रपद को सप्तमी तिथि रात को 9:22तक उसके बाद अष्टमी तिथि प्रारम्भ  होगी तथा अगले दिन शुक्रवार 19तारिक रात 11बजे समाप्त हो जाएगी।  19 अगस्त 3गते भाद्रपद को प्रात: प्रारंभ होने वाले व्रत के सूर्य भगवान को जल देकर व्रत का संकल्प करें  । भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा वृंदावन में बच्चों की परंपरा अनुसार जन्म उत्सव सूर्योदय काली एवं नवमीविद्धा अष्टमी में मनाने की परंपरा है जो कि इस बार इसी प्रकार से आ रही है अर्थात 19 अगस्त का व्रत रखने के पश्चात अष्टमी तिथि शुक्रवार रात 11:00 बजे समाप्त हो जाएगी इसके पश्चात चंद्रमा को अर्घ्य आदि देकर के 20 अगस्त 3गते भाद्रपद  को व्रत का पारायण(खोलना) चाहिए । 
कैसे खोलें व्रत - व्रत परायण अर्थात खोलने के लिए। प्रातः सूर्य को जल चढ़ाएं। संध्या वंदन आदि करें।पूजा में जोत जलाए।श्री कृष्ण भगवान का पूजन करें। आरती करें।
क्षमा प्रार्थना मांगे 

आवाहनं न जानामि न जानामि विसजृनम।
पूजाचैव न जानामि क्षमयताम परमेश्वर:।।


20अगस्त शनिवार को गुग्गा नवमी का पर्व बड़े हर्षौउल्लास से मनाया जाएगा ।
श्रीमद् भागवत के तिथि के हिसाब से श्री कृष्ण कृष्ण जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी  तिथि, रोहिणी नक्षत्र, शुक्रवार  को  अष्टमी तिथि रोहिणी नक्षत्र के अनुसार तिथि होगी ।

मासी भाद्रपदे अष्टमअष्टम्यां कृष्ण कृष्ण अर्धरात्रअर्धरात्रके, 
वृष राशि की स्थिति चंद्रे नक्षत्र रोहिणी।। (भविष्य पुराण उत्तर) 


कृष्ण जन्माष्टमी निशीथ व्यापिनी गृह्या।
पूर्व दिन और निशीथ योगे पूर्वा।।(धर्मसिंधु) 

स्मार्त एवं वैष्णव में भेद
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व्रत-उपवास आदि करने वालों को 'वैष्णव' व 'स्मार्त' में भेद का ज्ञान होना अतिआवश्यक है। हम यहां 'वैष्णव' व 'स्मार्त' का भेद स्पष्ट कर रहे हैं।

'वैष्णव'- जिन लोगों ने किसी विशेष संप्रदाय के धर्माचार्य से दीक्षा लेकर कंठी-तुलसी माला, तिलक आदि धारण करते हुए तप्त मुद्रा से शंख-चक्र अंकित करवाए हों, वे सभी 'वैष्णव' के अंतर्गत आते हैं।
 
'स्मार्त'- वे सभी जो वेद-पुराणों के पाठक, आस्तिक, पंच देवों (गणेश, विष्णु,‍ शिव, सूर्य व दुर्गा) के उपासक व गृहस्थ हैं, 'स्मार्त' के अंतर्गत आते हैं।

कई पंडित यह बता देते हैं कि  जो गृहस्थ जीवन  बिताते हैं वे स्मार्त होते हैं और कंठी माला धारण करने वाले साधु-संत वैष्णव  होते हैं जबकि ऐसा नहीं है जो व्यक्ति श्रुति स्मृति में विश्वास रखता है। पंचदेव अर्थात ब्रह्मा , विष्णु , महेश , गणेश , उमा को मानता है , वह स्मार्त हैं 

प्राचीनकाल में अलग-अलग देवता को मानने वाले संप्रदाय अलग-अलग थे। श्री आदिशंकराचार्य द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि सभी देवता ब्रह्मस्वरूप हैं तथा जन साधारण ने उनके द्वारा बतलाए गए मार्ग को अंगीकार कर लिया तथा स्मार्त कहलाये।

जो किसी वैष्णव सम्प्रदाय के गुरु या धर्माचार्य से विधिवत दीक्षा लेता है तथा गुरु से कंठी या तुलसी माला गले में ग्रहण करता है या तप्त मुद्रा से शंख चक्र का निशान गुदवाता है । ऐसे व्यक्ति ही वैष्णव कहे जा सकते है अर्थात वैष्णव को सीधे शब्दों में कहें तो गृहस्थ से दूर रहने वाले लोग।

वैष्णव धर्म या वैष्णव सम्प्रदाय का प्राचीन नाम भागवत धर्म या पांचरात्र मत है। इस सम्प्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव हैं, जिन्हें छ: गुणों ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज से सम्पन्न होने के कारण भगवान या ‘भगवत’ कहा गया है और भगवत के उपासक भागवत कहलाते हैं। 

इस सम्प्रदाय की पांचरात्र संज्ञा के सम्बन्ध में अनेक मत व्यक्त किये गये हैं। 

‘महाभारत’के अनुसार चार वेदों और सांख्ययोग के समावेश के कारण यह नारायणीय महापनिषद पांचरात्र कहलाता है।

नारद पांचरात्र के अनुसार इसमें ब्रह्म, मुक्ति, भोग, योग और संसार–पाँच विषयों का ‘रात्र’ अर्थात ज्ञान होने के कारण यह पांचरात्र है।

‘ईश्वरसंहिता’, ‘पाद्मतन्त’, ‘विष्णुसंहिता’ और ‘परमसंहिता’ ने भी इसकी भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या की है।

‘शतपथ ब्राह्मण’ के अनुसार सूत्र की पाँच रातों में इस धर्म की व्याख्या की गयी थी, इस कारण इसका नाम पांचरात्र पड़ा। इस धर्म के ‘नारायणीय’, ऐकान्तिक’ और ‘सात्वत’ नाम भी प्रचलित रहे हैं।

प्रायः पंचांगों में एकादशी व्रत , जन्माष्टमी व्रत स्मार्त जनों के लिए पहले दिन और वैष्णव लोगों के लिए दूसरे दिन बताया जाता है । इससे जनसाधारण भ्रम में पड जाते हैं। दशमी तिथि का मान 55 घटी से ज्यादा हो तो वैष्णव जन द्वादशी तिथि को व्रत रखते हैं अन्यथा एकादशी को ही रखते है। इसी तरह स्मार्त जन अर्ध्दरात्री को अष्टमी पड रही हो तो उसी दिन जन्माष्टमी मनाते हैं। जबकी वैष्णवजन उदया तिथी को जन्माष्टमी मनाते हैं एवं व्रत भी उसी दिन रखते हैं।



रात में  किर्तन आदि करे ‌‌ ‌‌ ऊँ नमोः भगवते वासुदेवाय नम: ' का जाप करे।
क्योंकि जिस मनुष्य को श्री कृष्ण अष्टमी के उपवास पूजन आदि का सौभाग्य मिलता है उसके कोटी जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा वह जन्म बंधन से युक्त मुक्त होकर दिव्य वैकुंठ आदि भगवत धाम में निवास करता है ।

Monday 1 August 2022

जाने नागपंचमी (श्रावण पंचमी) 2 अगस्त के बारे में

 



 नागपंचमी (श्रावण पंचमी) 2 अगस्त   विशेष 17 गते श्रावण मंगलवार 

इस बार नाग पंचमी २ अगस्त १७ गते मंगलबार को आ रही है अपने गृह द्वार पर देहलीज के दोनों ओर गोबर से सर्पाकृति बना कर उनका दूध दूर्वा गन्ध पुष्प अक्षत लडुओ सहित पूजा करके ॐ कुरूकुल्ये  हुँ फट स्वाहा मन्त्र की ३ माला जप व नागसत्रोत का पाठ करने से गृह में सर्प बिष का भय नहीं रहता  

श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को नागपंचमी का पर्व मनाया जाता है। इस पर्व पर प्रमुख नाग मंदिरों में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है और भक्त नागदेवता के दर्शन व पूजा करते हैं। सिर्फ मंदिरों में ही नहीं बल्कि घर-घर में इस दिन नागदेवता की पूजा करने का विधान है।


ऐसी मान्यता है कि जो भी इस दिन श्रद्धा व भक्ति से नागदेवता का पूजन करता है उसे व उसके परिवार को कभी भी सर्प भय नहीं होता। इस बार यह पर्व अगस्त, मंगलबार  को है। इस दिन नागदेवता की पूजा किस प्रकार करें, इसकी विधि इस प्रकार है।


 पूजन विधि

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नागपंचमी पर सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि करने के बाद सबसे पहले भगवान शंकर का ध्यान करें नागों की पूजा शिव के अंश के रूप में और शिव के आभूषण के रूप में ही की जाती है। क्योंकि नागों का कोई अपना अस्तित्व नहीं है। अगर वो शिव के गले में नहीं होते तो उनका क्या होता। इसलिए पहले भगवान शिव का पूजन करेंगे।  शिव का अभिषेक करें, उन्हें बेलपत्र और जल चढ़ाएं।


इसके बाद शिवजी के गले में विराजमान नागों की पूजा करे। नागों को हल्दी, रोली, चावल और फूल अर्पित करें। इसके बाद चने, खील बताशे और जरा सा कच्चा दूध प्रतिकात्मक रूप से अर्पित करेंगे।


घर के मुख्य द्वार पर गोबर, गेरू या मिट्टी से सर्प की आकृति बनाएं और इसकी पूजा करें।


घर के मुख्य द्वार पर सर्प की आकृति बनाने से जहां आर्थिक लाभ होता है, वहीं घर पर आने वाली विपत्तियां भी टल जाती हैं।


इसके बाद 'ऊं कुरु कुल्ले फट् स्वाहा' का जाप करते हुए घर में जल छिड़कें। अगर आप नागपंचमी के दिन आप सामान्य रूप से भी इस मंत्र का उच्चारण करते हैं तो आपको नागों का तो आर्शीवाद मिलेगा ही साथ ही आपको भगवान शंकर का भी आशीष मिलेगा बिना शिव जी की पूजा के कभी भी नागों की पूजा ना करें। क्योंकि शिव की पूजा करके नागों की पूजा करेंगे तो वो कभी अनियंत्रित नहीं होंगे नागों की स्वतंत्र पूजा ना करें, उनकी पूजा शिव जी के आभूषण के रूप में ही करें।


नाग-नागिन के जोड़े की प्रतिमा (सोने, चांदी या तांबे से निर्मित) के सामने यह मंत्र बोलें।


अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।

शंखपाल धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।।

एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्।

सायंकाले पठेन्नित्यं प्रात:काले विशेषत:।।


तस्मै विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।


इसके बाद पूजा व उपवास का संकल्प लें। नाग-नागिन के जोड़े की प्रतिमा को दूध से स्नान करवाएं। इसके बाद शुद्ध जल से स्नान कराकर गंध, फूल, धूप, दीप से पूजा करें व सफेद मिठाई का भोग लगाएं। यह प्रार्थना करें।


सर्वे नागा: प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथिवीतले।।

ये च हेलिमरीचिस्था येन्तरे दिवि संस्थिता।

ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिन:।

ये च वापीतडागेषु तेषु सर्वेषु वै नम:।।


प्रार्थना के बाद नाग गायत्री मंत्र का जाप करें-


ऊँ नागकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि तन्नो सर्प: प्रचोदयात्।


इसके बाद सर्प सूक्त का पाठ करें


ब्रह्मलोकुषु ये सर्पा: शेषनाग पुरोगमा:।

नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।

इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासुकि प्रमुखादय:।

नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।

कद्रवेयाश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परायणा।

नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।

इंद्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखादय:।

नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।

सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिना च रक्षिता।

नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।मलये चैव ये सर्पा: कर्कोटक प्रमुखादय:।

नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।

पृथिव्यांचैव ये सर्पा: ये साकेत वासिता।

नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।

सर्वग्रामेषु ये सर्पा: वसंतिषु संच्छिता।

नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।

ग्रामे वा यदिवारण्ये ये सर्पा प्रचरन्ति च।

नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।

समुद्रतीरे ये सर्पा ये सर्पा जलवासिन:।

नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।

रसातलेषु या सर्पा: अनन्तादि महाबला:।

नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।


नागदेवता की आरती करें और प्रसाद बांट दें। इस प्रकार पूजा करने से नागदेवता प्रसन्न होते हैं और हर मनोकामना पूरी करते हैं।

        

नागपंचमी

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महाभारत आदि ग्रंथों में नागों की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है। इनमें शेषनाग, वासुकि, तक्षक आदि प्रमुख हैं। नागपंचमी के अवसर पर हम आपको ग्रंथों में वर्णित प्रमुख नागों के बारे में बता रहे हैं।


तक्षक नाग

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धर्म ग्रंथों के अनुसार, तक्षक पातालवासी आठ नागों में से एक है। तक्षक के संदर्भ में महाभारत में वर्णन मिलता है। उसके अनुसार, श्रृंगी ऋषि के शाप के कारण तक्षक ने राजा परीक्षित को डसा था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। तक्षक से बदला लेने के उद्देश्य से राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने सर्प यज्ञ किया था। इस यज्ञ में अनेक सर्प आ-आकर गिरने लगे। यह देखकर तक्षक देवराज इंद्र की शरण में गया।


जैसे ही ऋत्विजों (यज्ञ करने वाले ब्राह्मण) ने तक्षक का नाम लेकर यज्ञ में आहुति डाली, तक्षक देवलोक से यज्ञ कुंड में गिरने लगा। तभी आस्तिक ऋषि ने अपने मंत्रों से उन्हें आकाश में ही स्थिर कर दिया। उसी समय आस्तिक मुनि के कहने पर जनमेजय ने सर्प यज्ञ रोक दिया और तक्षक के प्राण बच गए।


कर्कोटक नाग

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कर्कोटक शिव के एक गण हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, सर्पों की मां कद्रू ने जब नागों को सर्प यज्ञ में भस्म होने का श्राप दिया तब भयभीत होकर कंबल नाग ब्रह्माजी के लोक में, शंखचूड़ मणिपुर राज्य में, कालिया नाग यमुना में, धृतराष्ट्र नाग प्रयाग में, एलापत्र ब्रह्मलोक में और अन्य कुरुक्षेत्र में तप करने चले गए।


ब्रह्माजी के कहने पर कर्कोटक नाग ने महाकाल वन में महामाया के सामने स्थित लिंग की स्तुति की। शिव ने प्रसन्न होकर कहा- जो नाग धर्म का आचरण करते हैं, उनका विनाश नहीं होगा। इसके बाद कर्कोटक नाग उसी शिवलिंग में प्रवेश कर गया। तब से उस लिंग को कर्कोटेश्वर कहते हैं। मान्यता है कि जो लोग पंचमी, चतुर्दशी और रविवार के दिन कर्कोटेश्वर शिवलिंग की पूजा करते हैं उन्हें सर्प पीड़ा नहीं होती।


कालिया नाग

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श्रीमद्भागवत के अनुसार, कालिया नाग यमुना नदी में अपनी पत्नियों के साथ निवास करता था। उसके जहर से यमुना नदी का पानी भी जहरीला हो गया था। श्रीकृष्ण ने जब यह देखा तो वे लीलावश यमुना नदी में कूद गए। यहां कालिया नाग व भगवान श्रीकृष्ण के बीच भयंकर युद्ध हुआ। अंत में श्रीकृष्ण ने कालिया नाग को पराजित कर दिया। तब कालिया नाग की पत्नियों ने श्रीकृष्ण से कालिया नाग को छोडऩे के लिए प्रार्थना की। तब श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि तुम सब यमुना नदी को छोड़कर कहीं और निवास करो। श्रीकृष्ण के कहने पर कालिया नाग परिवार सहित यमुना नदी छोड़कर कहीं और चला गया।


इनके अलावा कंबल, शंखपाल, पद्म व महापद्म आदि नाग भी धर्म ग्रंथों में पूज्यनीय बताए गए हैं।


नागपंचमी पर नागों की पूजा कर आध्यात्मिक शक्ति और धन मिलता है। लेकिन पूजा के दौरान कुछ बातों का ख्याल रखना बेहद जरूरी है।

हिंदू परंपरा में नागों की पूजा क्यों की जाती है और ज्योतिष में नाग पंचमी का क्या महत्व है।


अगर कुंडली में राहु-केतु की स्थिति ठीक ना हो तो इस दिन विशेष पूजा का लाभ पाया जा सकता है।


जिनकी कुंडली में विषकन्या या अश्वगंधा योग हो, ऐसे लोगों को भी इस दिन पूजा-उपासना करनी चाहिए. जिनको सांप के सपने आते हों या सर्प से डर लगता हो तो ऐसे लोगों को इस दिन नागों की पूजा विशेष रूप से करना चाहिए।


भूलकर भी ये ना करें

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1. जो लोग भी नागों की कृपा पाना चाहते हैं उन्हें नागपंचमी के दिन ना तो भूमि खोदनी चाहिए और ना ही साग काटना चाहिए.।


2. उपवास करने वाला मनुष्य सांयकाल को भूमि की खुदाई कभी न करे।


3. नागपंचमी के दिन धरती पर हल न चलाएं।


4. देश के कई भागों में तो इस दिन सुई धागे से किसी तरह की सिलाई आदि भी नहीं की जाती।


5. न ही आग पर तवा और लोहे की कड़ाही आदि में भोजन पकाया जाता है।


6. किसान लोग अपनी नई फसल का तब तक प्रयोग नहीं करते जब तक वह नए अनाज से बाबे को रोट न चढ़ाएं।


राहु-केतु से परेशान हों तो क्या करें

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एक बड़ी सी रस्सी में सात गांठें लगाकर प्रतिकात्मक रूप से उसे सर्प बना लें इसे एक आसन पर स्थापित करें। अब इस पर कच्चा दूध, बताशा और फूल अर्पित करें। साथ ही गुग्गल की धूप भी जलाएं.


इसके पहले राहु के मंत्र 'ऊं रां राहवे नम:' का जाप करना है और फिर केतु के मंत्र 'ऊं कें केतवे नम:' का जाप करें।


जितनी बार राहु का मंत्र जपेंगे उतनी ही बार केतु का मंत्र भी जपना है।


मंत्र का जाप करने के बाद भगवान शिव का स्मरण करते हुए एक-एक करके रस्सी की गांठ खोलते जाएं. फिर रस्सी को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें. राहु और केतु से संबंधित जीवन में कोई समस्या है तो वह समस्या दूर हो जाएगी।


सांप से डर लगता है या सपने आते हैं।

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अगर आपको सर्प से डर लगता है या सांप के सपने आते हैं तो चांदी के दो सर्प बनवाएं साथ में एक स्वास्तिक भी बनवाएं। अगर चांदी का नहीं बनवा सकते तो जस्ते का बनवा लीजिए।

अब थाल में रखकर इन दोनों सांपों की पूजा कीजिए और एक दूसरे थाल में स्वास्तिक को रखकर उसकी अलग पूजा कीजिए।


नागों को कच्चा दूध जरा-जरा सा दीजिए और स्वास्तिक पर एक बेलपत्र अर्पित करें. फिर दोनों थाल को सामने रखकर 'ऊं नागेंद्रहाराय नम:' का जाप करें।


इसके बाद नागों को ले जाकर शिवलिंग पर अर्पित करें और स्वास्तिक को गले में धारण करें।


ऐसा करने के बाद आपके सांपों का डर दूर हो जाएगा और सपने में सांप आना बंद हो जाएंगे!

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