Monday 19 September 2022

जाने आश्विन नवरात्रे कब से क्या है पूजन विधि

 





प्रतिपदा  26 सितंबर १०गते आश्विन  से शरद नवरात्रि आरंभ हो रहे हैं इस दिन श्री दुर्गा माता के सम्मुख अखंड दीप प्रज्वलित करके श्री दुर्गा पूजन कलश स्थापन प्रमुख देवी देवताओं का आवाहन पूजन आदि के बाद श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ आरंभ किया जाता है प्रतिपदा 26 सितंबर सोमवार  7:25 प्रातः कलश की स्थापना करनी चाहिए 

देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता । 

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: । ।

नवरात्रि  एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है नौ  रातें || नवरात्रि के नौ रातों में तीन देवियों -महालक्ष्मी माँ सरस्वती और माँ दुर्गा के नौ  स्वरूपों की पूजा की जाती है ||
            शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी ,चन्द्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता ,कात्यायनी  कालरात्रि, महागौरी ,सिद्धिदात्री ॥

 इस दिन स्नान ध्यान आदि के बाद शुद्ध पात्र में रेत मिट्टी डालकर मंगल पूर्वक जो गेहूं सप्तधान्य के बीज वपन करने चाहिए तथा श्री दुर्गा जी की मूर्ति के सम्मुख अखंड दीप प्रज्वलन एवं मंत्र उच्चारण सहित घट स्थापन करना चाहिए फिर षोडशोपचार पूजन सहित श्री दुर्गा पूजन करके संकल्प पूर्वक प्रतिपदा से नवमी तिथि तक देवी के सम्मुख दीप जलाकर श्री दुर्गा सप्तशती का नियमित रूप से पाठ करना चाहिए प्रतिपदा के दिन  ॥       

Saturday 17 September 2022

जाने अपने नाम राशि के मुताबिक कैसा रहेगा सितंबर मास।


 सितंम्बर 2022

मेष राशि चू चे चो ला ली लू ले लो अ
सितंम्बर 2022 

राहु के कारण अत्यधिक दौड़ धूप के बावजूद आय में कमी एवं खर्च अधिक होंगे कार्य व्यवसाय में उलझने एवं रुकावटें पैदा होगी। पारिवारिक वातावरण विक्षुब्ध दांपत्य जीवन में भी तनाव भरा माहौल रहेगा। 

वृष राशि ई ई उ ए ओ वा वि वू वे वो
सितंम्बर 2022 

तारीख 24 तक चतुर्थ शुक्र पर मंगल की दृष्टि होने से माता का स्वास्थ्य ढीला मानसिक तनाव एवं वाहन आदि पर धन खर्च होगा। आकस्मिक खर्चों में वृद्धि एवं गुप्त शत्रु सर गरम रहेंगे मांस के अंत में शुक्र नीचस्थ होने से पारिवारिक अशांति बढ़ेगी। 


मिथुन राशि का की कू घ ड छ के को ह

सितंम्बर2022

बुध स्वराशीगत परंतु तारीख 10से से वक्री अवस्था में रहेगा गुरु की भी वक्र दृष्टि रहने से अत्यंत कठिनाइयों के बाद ही निर्वाह योग्य आय के साधन बनेंगे । यद्यपि पराक्रम में वृद्धि धर्म स्थान की यात्रा एवं परिवार में खुशी के अवसर भी मिलेंगे। 


कर्क राशि ही हू हे हो डा डी डू डे डो

भाग्येश गुरु की इस राशि पर दृष्टि होने से भाग्यवश कुछ सोची योजनाओं में सफलता, धर्म-कर्म के कार्यों में रुचि बढ़ेगी। परंतु साथ ही शनि की भी शत्रु दृष्टि होने से घरेलू तथा आर्थिक क्षेत्र में संघर्षपूर्ण परिस्थितियां रहेगी। 





सिंह राशि मा मी मू मे टा टी टू टे

सितंबर 2022

सितंबर 16 तक लग्नस्थ सूर्य शुक्र पर मंगल की दृष्टि होने से कुछ बिगड़े कामों में सुधार एवं आय के साधनों में वृद्धि होगी किसी नवीन कार्य क्षेत्र में धन का निवेश करने की योजना भी बनेगी आय के साधनों में वृद्धि के साथ-साथ खर्च अधिक होगा। परंतु बृथा भागदौड़ क्रोध की अधिकता रहेगी। 


कन्या राशि टो पा पी पू ष ण ठ पे पो


सितम्बर - बुध लग्नस्थ होने से बिगड़े कार्यों में सुधार , धन - लाभ व प्रगति के मार्ग प्रशस्त होंगे । उत्तरार्द्ध में सूर्य - शुक्र का संचार भी होने से मिश्रित फल मिलेगें । अत्यधिक परिश्रम करने पर भी मनोऽनुकूल लाभ में कुछ कमी रहेगी । निकट बन्धुओं से कुछ तनाव की स्थिति रहेगी । 

तुला राशि रा री रू रे रो ता ती तू ते


 सितम्बर - मासारम्भ में कुछ बिगड़े कार्य बनेंगे । धन लाभ के अवसर मिलेंगे । मान - सम्मान में वृद्धि होगी । परन्तु ता . 24 से शुक्र नीचस्थ होने से आय कम व खर्च अधिक रहेंगे । स्वास्थ्य भी ठीक न रहे । शनि - ढैय्या के कारण मन अशान्त एवं असन्तुष्ट रहेगा । 


वृश्चिक राशि तो ना नी नू नै नो या ती यू


सितंबर 2022

  परिस्थितियां धीरे - धीरे अनुकूल होंगी । पराक्रम और पुरुषार्थ से कुछ बिगड़े होने क कार्यों में सुधार होगा । गुरु पंचमस्थ रहने से धर्म - कर्म में अभिरुचि , सन्तान सम्बन्धी सुख तथा सोची योजनाओं में कामयाबी मिलेगी । 


धनु राशि ये यो भा भी भू धा पा ढ भे


 सितम्बर - मंगल की दृष्टि इस राशि पर तथा शनि - साढ़ेसाती होने से मानसिक तनाव , घरेलू उलझनें , खर्च अधिक और अत्यधिक संघर्ष के बाद भी धन लाभ अल्प रहेगा । उत्तरार्द्ध भाग में रूके हुए कार्यों में प्रगति एवं सुधार होगा। आय के साधन भी बनते रहेगें। 


मकर राशि भो जा जी खी खू खे खो गा गी

 राशिस्वामी शनि वक्री होने से नए - नए लोगों से सम्पर्क बढ़ेंगे , परन्तु अनावश्यक दौड़धूप एवं आकस्मिक धन का अपव्यय अधिक होगा । परिवार में मतभेद भी धूप रहे , क्रोध अधिक , स्वभाव में तेजी एवं उत्तेजना , स्वास्थ्य कष्ट के योग हैं। 


कुंभ राशि गू गे गो सा सी सू से सो दा

 ता . 16 तक सूर्य की दृष्टि रहने से क्रोध अधिक , बनते कामों में विघ्न , आय प्राप्ति ह से खर्च अधिक होगा । घरेलु उलझनों के कारण तथा आर्थिक परेशानियों से मन चिन्तित परेशानी रहेगा । परन्तु शनि स्वराशिगत होने से निर्वाह योग्य आय के साधन बनते रहेंगे । 


श्राद्ध क्यो? तथा पितरो को कैसे प्राप्त होता है।

 

ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नमः स्वाहायै स्वाधायै नित्यमेव नमो नमः।।


  श्राद्ध - तत्त्व - प्रश्नोत्तरी

प्रश्न- श्राद्ध किसे कहते हैं ?

 उत्तर – श्रद्धासे किया जानेवाला वह कार्य , जो पितरोंके निमित्त किया जाता है , श्राद्ध कहलाता है ।

 प्रश्न- कई लोग कहते हैं कि श्राद्धकर्म असत्य हैं और इसे ब्राह्मणोंने ही अपने लेने - खानेके लिये बनाया है । इस विषयपर आपका क्या विचार है ?

 उत्तर – श्राद्धकर्म पूर्णरूपेण आवश्यक कर्म है और शास्त्रसम्मत है । हाँ , वर्तमानकालमें लोगोंमें ऐसी रीति ही चल पड़ी है कि जिस बातको वे समझ जायँ - वह तो उनके लिये सत्य है ; परंतु जो विषय उनकी समझके बाहर हो , उसे वे गलत कहने लगते हैं । कलिकालके लोग प्रायः स्वार्थी हैं । उन्हें दूसरेका सुखी होना सुहाता नहीं । स्वयं तो मित्रोंके बड़े - बड़े भोज निमन्त्रण स्वीकार करते हैं , मित्रोंको अपने घर भोजनके लिये निमन्त्रित करते हैं , रात - दिन निरर्थक व्ययमें आनन्द मनाते हैं ; परंतु श्राद्धकर्ममें एक ब्राह्मणको भोजन करानेमें भार अनुभव करते हैं । जिन माता - पिताकी जीवनभर सेवा करके भी ऋण नहीं चुकाया जा सकता , उनके पीछे भी उनके लिये श्राद्धकर्म करते रहना आवश्यक है । 

प्रश्न - श्राद्ध करनेसे क्या लाभ होता है ? 

उत्तर – मनुष्यमात्र के लिये शास्त्रों में देव - ऋण , ऋषि ऋण और पितृ ऋण- ये तीन ऋण बताये गये हैं । इनमें श्राद्धके द्वारा पितृ ऋण उतारा जाता है । विष्णुपुराणमें कहा गया है कि ' श्राद्धसे तृप्त होकर पितृगण समस्त कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं । ' ( ३।१५।५१ ) इसके अतिरिक्त श्राद्धकर्तासे विश्वेदेवगण , पितृगण मातामह तथा कुटुम्बीजन- सभी सन्तुष्ट रहते हैं । ( ३ । १५ । ५४ ) पितृपक्ष ( आश्विनका कृष्णपक्ष ) - में तो पितृगण स्वयं श्राद्ध ग्रहण करने आते हैं तथा श्राद्ध मिलनेपर प्रसन्न होते हैं और न मिलनेपर निराश हो शाप देकर लौट जाते हैं । विष्णुपुराणमें पितृगण कहते हैं- हमारे कुलमें क्या कोई ऐसा बुद्धिमान् धन्य पुरुष उत्पन्न होगा , जो धनके लोभको त्यागकर हमारे लिये पिण्डदान करेगा । ( ३ । १४ । २२ ) विष्णुपुराणमें श्राद्धकर्मके सरल से सरल उपाय बतलाये गये हैं । अतः इतनी सरलतासे होनेवाले कार्यको त्यागना नहीं चाहिये ।

 प्रश्न- पितरोंको श्राद्ध कैसे प्राप्त होता है ? 

उत्तर – यदि हम चिट्ठीपर नाम - पता लिखकर लैटर बक्समें डाल दें तो वह अभीष्ट पुरुषको , वह जहाँ भी है , अवश्य मिल जायगी । इसी प्रकार जिनका नामोच्चारण किया गया है , उन पितरोंको , वे जिस योनिमें भी हों , श्राद्ध प्राप्त हो जाता है । जिस प्रकार सभी पत्र पहले बड़े डाकघरमें एकत्रित होते हैं और फिर उनका अलग - अलग विभाग होकर उन्हें अभीष्ट स्थानोंमें पहुँचाया जाता है , उसी प्रकार अर्पित पदार्थका सूक्ष्म अंश सूर्य - रश्मियोंके द्वारा सूर्यलोकमें पहुँचता है और वहाँसे बँटवारा होता है तथा अभीष्ट पितरोंको प्राप्त होता है । पितृपक्ष में विद्वान् ब्राह्मणोंके द्वारा आवाहन किये जानेपर पितृगण स्वयं उनके शरीरमें सूक्ष्मरूपसे स्थित हो जाते हैं । अन्नका स्थूल अंश ब्राह्मण खाता है और सूक्ष्म अंशको पितर ग्रहण करते हैं ।

 प्रश्न- यदि पितर पशु - योनिमें हों , तो उन्हें उस योनिके योग्य आहार हमारेद्वारा कैसे प्राप्त होता है ? 

उत्तर - विदेशमें हम जितने रुपये भेजें , उतने ही रुपयोंका डालर आदि ( देशके अनुसार विभिन्न सिक्के ) होकर अभीष्ट व्यक्तिको प्राप्त हो जाते हैं । उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक अर्पित अन्न पितृगणको , वे जैसे आहारके योग्य होते हैं , वैसा ही होकर उन्हें मिलता है ।

 प्रश्न – यदि पितर परमधाममें हों , जहाँ आनन्द - ही आनन्द है , वहाँ तो उन्हें किसी वस्तुकी भी आवश्यकता नहीं है । फिर उनके लिये किया गया श्राद्ध क्या व्यर्थ चला जायगा ?

 उत्तर- नहीं । जैसे , हम दूसरे शहरमें अभीष्ट व्यक्तिको कुछ रुपये भेजते हैं , परंतु रुपये वहाँ पहुँचनेपर पता चले कि अभीष्ट व्यक्ति तो मर चुका है , तब वह रुपये हमारे ही नाम होकर हमें ही मिल जायेंगे । ऐसे ही परमधामवासी पितरोंके निमित्त किया गया श्राद्ध पुण्यरूपसे हमें ही मिल जायगा । अतः हमारा लाभ तो सब प्रकारसे ही होगा । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !

 कैसे होती है पितरों को श्राद्ध की प्राप्ति ?

उतर-  यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि श्राद्ध में दी गयी अन्न आदि सामग्रियाँ पितरों को कैसे मिलती हैं , क्योंकि विभिन्न कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद जीव को भिन्न - भिन्न गति होती जाता हैं , कोई पितर , कोई प्रेत , कोई हाथी , कोई पितृ पक्ष चीटी , कोई चिनार का वृक्ष और कोई तृण । श्राद्ध में दिये गये छोटे से पिण्ड से हाथी का पेट कैसे भर सकता है ? इसी प्रकार चींटी इतने बड़े पिण्ड को कैसे खा सकती है ? देवता तो अमृत से तृप्त होते हैं , पिण्ड से उन्हें कैसे तृप्ति मिलेगी ? 

इन प्रश्नों का शास्त्र ने सुस्पष्ट उत्तर दिया है कि नाम गोत्र के सहारे विश्वेदेव एवं अग्निष्वात आदि दिव्य पितर हव्यकव्य को पितरों को प्राप्त करा देते हैं । यदि पिता देवयोनि को प्राप्त हो गया हो तो दिया गया अन्न उसे वहाँ अमृत होकर प्राप्त हो जाता है । मनुष्ययोनि में अन्नरूप में तथा पशुयोनि में तृणके रूप में उसे उसकी प्राप्ति होती है । नागादि योनियों में वायुरूप से , यक्षयोनि में पानरूप से तथा अन्य योनियों में भी उसे श्राद्धीय वस्तु भोगजनक तृप्तिकर पदार्थों के रूप में प्राप्त होकर अवश्य तृप्त करती है । जिस प्रकार गोशाला में भूली माता को बछड़ा किसी न - किसी प्रकार ढूंढ ही लेता है , उसी प्रकार मन्त्र तत्तद् वस्तुजातको प्राणी के पास किसी - न - किसी प्रकार पहुंचा ही देता है । नाम , गोत्र , हृदय की श्रद्धा एवं उचित संकल्पपूर्वक दिये हुए पदार्थों को भक्तिपूर्वक उच्चारित मन्त्र उनके पास पहुँचा देता है । जीव चाहे सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो , तृप्ति तो उसके पास पहुँच ही जाती है ।

Thursday 15 September 2022

पितृ स्तोत्र का पाठ करने से पितृदोष की शांति एवं सभी प्रकार की बाधायें दूर होकर उन्नति की प्राप्ति होती






 जो व्यक्ति पितृ दोष से मुक्ति चाहता है उसे मार्कण्डेय पुराण महात्मा रुचि द्वारा विरचीत पितृ स्तोत्रम्  इस पितृ स्तोत्र का रोज पाठ करना चाहिये । • श्राद्धपक्ष , अमावस्या , पूर्णिमा या पितरों की पुण्य तिथि पर ब्राह्मण भोजन या संध्या के समय तेल का दीपक जलाकर पितृ स्तोत्र का पाठ करने से पितृदोष की शांति एवं सभी प्रकार की बाधायें दूर होकर उन्नति की प्राप्ति होती है । 

 रुचिरुवाच . 


अर्चिता नाम मूर्तानां पितॄणां दीप्त तेजसाम् ।

 नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्य चक्षुषाम् ॥ ॥ १ ॥

 इन्द्रादीनां च नेतारो दक्ष - मारीच - योस्तथा । 

सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान् ॥ ॥ २ ॥

मन्वादीनां च नेतारः सूर्या - चन्द - मसोस्तथा । 

तान् नमस्यामहं सर्वान् पितृ - नप्यु - दधावपि ॥ ॥ ३ ॥

 नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा । 

द्यावा - पृथिवोव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलिः ॥ ॥ ४ ॥

देवर्षीणां जनितॄंश्च सर्वलोक - नमस्कृतान् । 

अक्षय्यस्य सदा दातॄन् नमस्येहं कृताञ्जलिः ॥ ॥ ५ll

प्रजापते : कश्पाय सोमाय वरुणाय च ।

 योगे - श्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलिः ॥ ॥ ६ ॥

नमो गणेभ्य : सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु । 

स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे ॥ ॥ ७ ll

सोमाधारान् पितृ - गणान् योगमूर्ति - धरांस्तथा । 

नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् ॥ ॥ ८ ॥

अग्रिरूपांस् - तथैवान्यान् नमस्यामि पितॄनहम् । 

अग्रीषोम - मयं विश्वं यत एतदशेषतः ॥ ॥ ९ ॥

ये तु तेजसि ये चैते सोम - सूर्याग्रि मूर्तय : । 

जगत् - स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्म - स्वरूपिणः ॥ ॥१० ॥

तेभ्योखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतामनसः । 

नमो नमो नमस्तेस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुज ॥ ।।११ ।। मा.पु. ९ ४ / ३ / १३।। 

मार्कण्डेय पुराण महात्मा रुचि द्वारा विरचीत पितृ स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥

स्तोत्रका को पढने का माहात्म्य पितर बोले- ' जो मनुष्य इस स्तोत्रसे भक्तिपूर्वक हमारी स्तुति करेगा , उसके ऊपर सन्तुष्ट होकर हमलोग उसे मनोवांछित भोग तथा उत्तम आत्मज्ञान प्रदान करेंगे । जो नीरोग शरीर , धन और पुत्र - पौत्र आदिकी इच्छा करता हो , वह सदा इस स्तोत्रसे हमलोगोंकी स्तुति करे यह स्तोत्र हमलोगोंकी प्रसन्नता बढ़ानेवाला है । जो श्राद्धमें भोजन करनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके सामने खड़े होकर भक्तिपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करेगा , उसके यहाँ स्तोत्र श्रवणके प्रेमसे हम निश्चय ही उपस्थित होंगे और हमारे लिये किया हुआ श्राद्ध भी निःसन्देह अक्षय होगा । चाहे श्रोत्रिय ब्राह्मणसे रहित श्राद्ध हो , चाहे वह किसी दोषसे दूषित हो गया हो अथवा अन्यायोपार्जित धनसे किया गया हो अथवा श्राद्धके लिये अयोग्य दूषित सामग्रियोंसे उसका अनुष्ठान हुआ हो , अनुचित समय या अयोग्य देशमें हुआ हो या उसमें विधिका उल्लंघन किया गया हो अथवा लोगोंने बिना श्रद्धाके या दिखावेके लिये किया हो , तो भी वह श्राद्ध इस स्तोत्रके पाठसे हमारी तृप्ति करनेमें समर्थ होता है । हमें सुख देनेवाला यह स्तोत्र जहाँ श्राद्धमें पढ़ा जाता है , वहाँ हमलोगोंको बारह वर्षोंतक बनी रहनेवाली तृति प्राप्त होती है ..... जिस घर में यह स्तोत्र सदा लिखकर रखा जाता है , वहाँ श्राद्ध करनेपर हमारी निश्चय ही उपस्थिति होती है । अतः श्राद्धमें भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंके सामने यह स्तोत्र अवश्य सुनाना चाहिये ; क्योंकि यह हमारी पुष्टि करनेवाला है । ' ( मार्कण्डेयपुराण ,


Friday 2 September 2022

जाने कब से श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष


 

ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नमः स्वाहायै स्वाधायै नित्यमेव नमो नमः।।




जो व्यक्ति पितृ दोष से मुक्ति चाहता है उसे मार्कण्डेय पुराण महात्मा रुचि द्वारा विरचीत पितृ स्तोत्रम्  इस पितृ स्तोत्र का रोज पाठ करना चाहिये । • श्राद्धपक्ष , अमावस्या , पूर्णिमा या पितरों की पुण्य तिथि पर ब्राह्मण भोजन या संध्या के समय तेल का दीपक जलाकर पितृ स्तोत्र का पाठ करने से पितृदोष की शांति एवं सभी प्रकार की बाधायें दूर होकर उन्नति की प्राप्ति होती है । 
  
• रुचिरुवाच . 
अर्चिता नाम मूर्तानां पितॄणां दीप्त तेजसाम् ।
 नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्य चक्षुषाम् ॥ ॥ १ ॥

 इन्द्रादीनां च नेतारो दक्ष - मारीच - योस्तथा । 
सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान् ॥ ॥ २ ॥

मन्वादीनां च नेतारः सूर्या - चन्द - मसोस्तथा । 
तान् नमस्यामहं सर्वान् पितृ - नप्यु - दधावपि ॥ ॥ ३ ॥

 नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा । 
द्यावा - पृथिवोव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलिः ॥ ॥ ४ ॥

देवर्षीणां जनितॄंश्च सर्वलोक - नमस्कृतान् । 
अक्षय्यस्य सदा दातॄन् नमस्येहं कृताञ्जलिः ॥ ॥ ५ll

प्रजापते : कश्पाय सोमाय वरुणाय च ।
 योगे - श्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलिः ॥ ॥ ६ ॥

नमो गणेभ्य : सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु । 
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे ॥ ॥ ७ ll

सोमाधारान् पितृ - गणान् योगमूर्ति - धरांस्तथा । 
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् ॥ ॥ ८ ॥

अग्रिरूपांस् - तथैवान्यान् नमस्यामि पितॄनहम् । 
अग्रीषोम - मयं विश्वं यत एतदशेषतः ॥ ॥ ९ ॥

ये तु तेजसि ये चैते सोम - सूर्याग्रि मूर्तय : । 
जगत् - स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्म - स्वरूपिणः ॥ ॥१० ॥

तेभ्योखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतामनसः । 
नमो नमो नमस्तेस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुज ॥ ।।११ ।।
 मा.पु. ९ ४ / ३ / १३
मार्कण्डेय पुराण महात्मा रुचि द्वारा विरचीत पितृ स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥




स्तोत्रका को पढने का माहात्म्य पितर बोले- ' जो मनुष्य इस स्तोत्रसे भक्तिपूर्वक हमारी स्तुति करेगा , उसके ऊपर सन्तुष्ट होकर हमलोग उसे मनोवांछित भोग तथा उत्तम आत्मज्ञान प्रदान करेंगे । जो नीरोग शरीर , धन और पुत्र - पौत्र आदिकी इच्छा करता हो , वह सदा इस स्तोत्रसे हमलोगोंकी स्तुति करे यह स्तोत्र हमलोगोंकी प्रसन्नता बढ़ानेवाला है । जो श्राद्धमें भोजन करनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके सामने खड़े होकर भक्तिपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करेगा , उसके यहाँ स्तोत्र श्रवणके प्रेमसे हम निश्चय ही उपस्थित होंगे और हमारे लिये किया हुआ श्राद्ध भी निःसन्देह अक्षय होगा । चाहे श्रोत्रिय ब्राह्मणसे रहित श्राद्ध हो , चाहे वह किसी दोषसे दूषित हो गया हो अथवा अन्यायोपार्जित धनसे किया गया हो अथवा श्राद्धके लिये अयोग्य दूषित सामग्रियोंसे उसका अनुष्ठान हुआ हो , अनुचित समय या अयोग्य देशमें हुआ हो या उसमें विधिका उल्लंघन किया गया हो अथवा लोगोंने बिना श्रद्धाके या दिखावेके लिये किया हो , तो भी वह श्राद्ध इस स्तोत्रके पाठसे हमारी तृप्ति करनेमें समर्थ होता है । हमें सुख देनेवाला यह स्तोत्र जहाँ श्राद्धमें पढ़ा जाता है , वहाँ हमलोगोंको बारह वर्षोंतक बनी रहनेवाली तृति प्राप्त होती है ..... जिस घर में यह स्तोत्र सदा लिखकर रखा जाता है , वहाँ श्राद्ध करनेपर हमारी निश्चय ही उपस्थिति होती है । अतः श्राद्धमें भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंके सामने यह स्तोत्र अवश्य सुनाना चाहिये ; क्योंकि यह हमारी पुष्टि करनेवाला है । ' ( मार्कण्डेयपुराण ,



       











      

  • श्राद्ध कब हैं ?

पूजा-पाठ में रुचि रखने वाले सभी श्रद्धालु जानना चाहते हैं कि आखिर श्राद्ध कब हैं. इस साल श्राद्ध 29सितंबर से शुरू होंगे और 14 अक्तुवर को समाप्त  होंगे। इसके अगले दिन  नवरात्रि का पावन पर्व 15 अक्तुवर  से शुरू होगा और 23 अक्टूबर को समाप्त होगा.






       


  • क्यों करें श्राद्ध

"मैंने अपने आध्यात्मिक शोध में पाया है कि जिनके घर अत्यधिक पितृदोष होता है, उनके अतृप्त पितर, कई बार गर्भस्थ पुरुष-भ्रूणकी योनि, जन्मके दो या तीन माह पूर्वमें परिवर्तित कर देते हैं एवं ऐसे पुत्रियोंको जन्मसे ही अत्यधिक अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट होता है; क्योंकि उनपर गर्भकालमें ही आघात हो चुका होता है । वैसे तो यह तथ्य स्थूल दृष्टिसे अवैज्ञानिक लगता है, आपको बता दूं, मैं भी आधुनिक विज्ञानकी छात्र रहा हूं और अपने इस अध्यात्मिक शोधके निष्कर्षको प्रमाणित करने हेतु मैंने कुछ गर्भस्थ माताओंपर सूक्ष्म स्तरके प्रयोग भी और उन सभी प्रयोगोंमें इस तथ्यकी बार-बार पुष्टि हुई  जब यह बात कुछ ऐसे लोगोंको बताई जिनकी पुत्री वास्तविकतामें पुत्र ही था (थी); किन्तु जन्मसे कुछ माह पूर्व उनके कुपित अतृप्त पितरोंने गर्भस्थ शिशुकी लिंग परिवर्तित कर दिया तो उन्होंने मुझसे कहा कि उन्हें भी कुछ अध्यात्मविदोंने कहा था कि उनकी कुण्डलीमें पुत्र योग है एवं उनकी पत्नीके गर्भवती थीं, तब उनके सर्व लक्षण पुत्र होनेके ही थे; परन्तु उन्हें पुत्र, नहीं मात्र पुत्रियां हुईं ! इससे, सोलह संस्कारोंमें पुरुष भ्रूणके संरक्षण हेतु संस्कार कर्मोंको विशेष महत्त्व क्यों दिया गया है, यह ज्ञात हुआ । वहीं मैंने यह किसी भी स्त्री भ्रूणके साथ होता हुआ नहीं पाया है, अर्थात् अतृप्त पूर्वज मात्र पुरुष लिंगका ही परिवर्तन करते हैं, पुत्रीका नहीं ! यह सब अध्यात्मिक शोध सूक्ष्म अतिन्द्रियोंके माध्यमसे मैंने किए हैं । आजका आधुनिक विज्ञान भी कहता है कि पुरुषोंमें x और y दो प्रकारके लिंग-गुणसूत्र (सेक्स-क्रोमोसाम्स) होते हैं, वहीं स्त्रियोंमें एक ही प्रकारका मात्र x लिंग-गुणसूत्र होते हैं । वस्तुत: y गुणसूत्रके अध्ययनसे किसी भी पुरुषके पितृवंश समूहका पता लगाया जा सकता है । इस प्रकार हमारे शास्त्रोंमें क्यों कहा गया है कि अतृप्त पितर कुलका नाश करते हैं, यह भी ज्ञात हुआ । अर्थात पुत्रके न होनेसे अध्यात्मिक हानि हो न हो; किन्तु लौकिक अर्थोंमें उस कुलका एक गुणसूत्र सदैवके लिए समाप्त हो जाता है और हमारे वैदिक मनीषी, हमारी दैवी संस्कृतिके संरक्षक, गुणसूत्रोंके, रक्षणका महत्त्व जानते थे; अतः पुत्र भ्रूणकी रक्षा एवं पुत्रके शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक रूपसे स्वस्थ जन्म लेने हेतु जन्मपूर्व कुछ संस्कार कर्म, सोलह संस्कार अन्तर्गत अवश्य करवाए जाते थे । वैसे आपको यह स्पष्ट करुं कि मैं गर्भपात और कन्या भ्रूण-हत्याकी प्रखर विरोधक हूं और न ही मैं मात्र पुत्रियोंको जन्म देनवाली माताओंको किसी भी दृष्टिसे हीन मानती हूं एवं न ही यह कहना चाहती हूं कि आपको पुत्र अवश्य होने चाहिए ! मैं तो मात्र यह बताना चाहता हूं कि हमारी वैदिक ऋषि कितने उच्च कोटि के शोधकर्ता ओर वैज्ञानिक थे।"

आधुनिक युग में श्राद्ध का नाम आते ही अक्सर इसे अंधविश्वास की संज्ञा दे दी जाती है. प्रश्न किया जाता है कि क्या श्राद्ध की अवधि में ब्राह्मणों को खिलाया गया भोजन पितरों को मिल जाता है? मन में ऐसे प्रश्न उठना स्वाभाविक है. एकल परिवारों के इस युग में कई बच्चों को अपने दादा-दादी या नाना-नानी के नाम तक नहीं मालूम होते हैं. ऐसे में परदादा या परनाना के नाम पूछने का तो कोई मतलब ही नहीं है. अगर आप चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियों तक परिवार का नाम बना रहे तो श्राद्ध के महत्व को समझना बहुत जरूरी है. सदियों से चली आ रही भारत की इस व्यावहारिक एवं सुंदर परंपरा का निर्वहन अवश्य करें. श्राद्ध कर्म का एक समुचित उद्देश्य है, जिसे धार्मिक कृत्य से जोड़ दिया गया है. दरअसल, श्राद्ध आने वाली संतति को अपने पूर्वजों से परिचित करवाते हैं. इन 15 दिनों के दौरान उन दिवंगत आत्माओं का स्मरण किया जाता है, जिनके कारण पारिवारिक वृक्ष खड़ा है. इस दौरान उनकी कुर्बानियों व योगदान को याद किया जाता है. इस अवधि में अपने बच्चों को परिवार के दिवंगत पूर्वजों के आदर्श व कार्यकलापों के बारे में बताएं ताकि वे कुटुंब की स्वस्थ परंपराओं का निर्वहन कर सकें.





  • धार्मिक मान्यताएं

हमारे समाज में हर सामाजिक व वैज्ञानिक अनुष्ठान को धर्म से जोड़ दिया गया था ताकि परंपराएं निभाई जाती रहें. श्राद्धकर्म उसी श्रृंखला का एक भाग है जिसके सामाजिक या पारिवारिक औचित्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध करना बेहद जरूरी माना जाता है. मान्यतानुसार अगर किसी मनुष्य का विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण न किया जाए तो उसे इस लोक से मुक्ति नहीं मिलती है. ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार, देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों यानि पूर्वजों को प्रसन्न करना चाहिए. हिन्दू ज्योतिष के अनुसार भी पितृ दोष को सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है. पितरों की शांति के लिए हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के काल में पितृ पक्ष श्राद्ध मनाए जाते हैं. मान्यता है कि इस दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते हैं ताकि वे अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें. ब्रह्म पुराण के अनुसार, जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम उचित विधि द्वारा ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक दी जाए, वह श्राद्ध कहलाता है. श्राद्ध के माध्यम से पितरों की तृप्ति के लिए भोजन पहुंचाया जाता है. पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा होता है.




      

  • श्राद्ध विधि

श्राद्ध में तिल, चावल, जौ आदि को अधिक महत्व दिया जाता है. साथ ही पुराणों में इस बात का भी जिक्र है कि श्राद्ध का अधिकार केवल योग्य ब्राह्मणों को है. श्राद्ध में तिल और कुश का सर्वाधिक महत्व होता है. श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए. श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई, पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है.




  • श्राद्ध में कौओं का महत्त्व 



कौए को पितरों का रूप माना जाता है. मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितर कौए का रूप धारण कर नियत तिथि पर दोपहर के समय हमारे घर आते हैं. अगर उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता है तो वे रुष्ट हो जाते हैं. इस कारण श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं को दिया जाता है.





  • कैसे करें श्राद्ध?

इसे  ब्राहमण या किसी सुयोग्य कर्मकांडी द्वारा करवाया जा सकता है. आप चाहें तो स्वयं भी कर सकते हैं.
श्राद्ध विधि (shradh vidhi) के लिए ये सामग्री लें - सर्प-सर्पिनी का जोड़ा, चावल, काले तिल, सफेद वस्त्र, 11 सुपारी, दूध, जल तथा माला. फिर पूर्व या दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें. सफेद कपड़े पर सामग्री रखें. 108 बार माला से जाप करें या सुख-शांति,समद्धि प्रदान करने तथा संकट दूर करने की क्षमा याचना सहित पितरों से प्रार्थना करें। जल में तिल डालकर 7 बार अंजलि दें. शेष सामग्री को पोटली में बांधकर प्रवाहित कर दें. ब्राह्मणों, निर्धनों, गायों, कुत्तों और पक्षियों को श्रद्धापूर्वक हलवा, खीर व भोजन खिलाएं.

श्राद्ध में 5 मुख्य कर्म अवश्य करने चाहिए-
1. तर्पण- दूध, तिल, कुशा, पुष्प, सुगंधित जल पित्तरों को नित्य अर्पित करें.
2. पिंडदान- चावल या जौ के पिंडदान करके जरूरतमंदों को भोजन दें.
3. वस्त्रदानः निर्धनों को वस्त्र दें.
4. दक्षिणाः भोजन करवाने के बाद दक्षिणा दें और चरण स्पर्श भी जरूर करें.
5. पूर्वजों के नाम पर शिक्षा दान, रक्त दान, भोजन दान, वृक्षारोपण या चिकित्सा संबंधी दान जैसे सामाजिक कृत्य अवश्य करने चाहिए.
      

  आशिवन  कृष्ण पक्ष  पितृपक्ष  कहलाता है  इस पक्ष में जो व्यक्ति अपने  दिवंगत पूर्वजों की मृत्यु की तिथि अनुसार तिल,कुशा, पुष्प ,अक्षत ,शुद्ध जल या गंगाजल सहित पिंडदान और तर्पण करता है फल, वस्त्र, दक्षिणा सहित संकल्प पूर्वक दान करता है उसके पितृ संतृप्त होकर जातक को स्वास्थ्य आरोग्य दीर्घायु धन सुख संपदा का आशीर्वाद प्रदान करते हैं  आयु पुत्रान् यश: स्वर्ग- कीर्ति पुषि्टं बलम श्रियम।पशुन सौख्यं धन धान्यं  प्राप्नुयात पितृपूजनात।।  जो व्यक्ति जानबूझकर पित्र श्राद्ध कर्म नहीं करता वह पितरों द्वारा शापित होकर अनेक प्रकार के मानसिक व शारीरिक कष्टों से पीड़ित रहता है पितृ पक्ष पन्द्रह दिन की समयावधि होती है जिसमें हिन्दु जन अपने पूर्वजों को भोजन अर्पण कर उन्हें श्रधांजलि देते हैं।
दक्षिणी भारतीय अमांत पञ्चाङ्ग के अनुसार पितृ पक्ष भाद्रपद के चन्द्र मास में पड़ता है औ जातार पूर्ण चन्द्रमा के दिन या पूर्ण चन्द्रमा के एक दिन बाद प्रारम्भ होता है।
पितृ पक्ष का अन्तिम दिन सर्वपित्रू अमावस्या या महालय अमावस्या के नाम से जाना जाता है। पितृ पक्ष में महालय अमावस्या सबसे मुख्य दिन होता है।
उत्तरी भारतीय पूर्णीमांत पञ्चाङ्ग के अनुसार पितृ पक्ष अश्विन के चन्द्र मास में पड़ता है और भाद्रपद में पूर्ण चन्द्रमा के दिन या पूर्ण चन्द्रमा के अगले दिन प्रारम्भ होता है।
यह चन्द्र मास की सिर्फ एक नामावली है जो इसे अलग-अलग करती हैं। उत्तरी और दक्षिणी भारतीय लोग श्राद्ध की विधि समान दिन ही करते हैं
हमारी हिंदू संस्कृति में पुत्र के लिए अपने माता पिता की सेवा एवं उनकी आज्ञा का पालन करना महत्वपूर्ण एवं सर्वश्रेष्ठ धर्म माना गया है भगवती श्रुति का कथन है मातृ देवो भव । पितृ देवो भव । आचार्य देवो भव । माता को देवता मानने वाले बने, पिता को देवता मारने वाले बने, आचार्य को देवता समझो आ। किंतु अंग्रेजी पढ़े लिखे एवं पाश्चात्य सभ्यता में पले हुए हमारे देशवासी इस महत्व को धीरे-धीरे गोन करते जा रहे हैं पदम पुराण के भूमि खंड में तो यहां तक लिखा है जो पाप आत्मा पुत्र किसी अंग से हीन, दिन वृद्ध,दुुखी, महान रोग से पीड़ित माता-पिता को त्याग देता है वह कीड़ों से भरे हुए दारू नर्क में पड़ता है जो पुत्र कटु वचनों के द्वारा माता-पिता की निंदा करता है वह पापी बाघ   की योनि में जन्म लेता है तथा और भी बहुत दु:ख प्राप्त करता है। जो पाप आत्मा पुत्र माता-पिता को प्रणाम नहीं करता वह सहस्त्रर यू गो तक कुंभी पार्क नामक नरक में निवास करता है ।
दूसरी ओर जो  माता पिता की आज्ञा पालन एवं उनकी सेवा करने वालों की सद्गति एवं सुख प्राप्ति करने की सहसत्रो प्रमाण हमारे शास्त्रों में भरे पड़े हैं 





    पिता धर्म: पिता स्वर्ग: पिता ही परमं तप:।
 पितरिं प्रीतिमापन्ने प्रियन्ते सर्व देवता ।।






पितृ पक्ष में किसको अधिकार है श्राद्ध करने का और क्या है 16 तिथियों का महत्व?


हिन्दू कैलेंडर के अनुसार श्राद्ध पक्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक कुल 16 दिनों तक चलता है। उक्त 16 दिनों में हर दिन अलग-अलग लोगों के लिए श्राद्ध होता है। वैसे अक्सर यह होता है कि जिस तिथि तो व्यक्ति की मृत्यु हुई है, श्राद्ध में पड़ने वाली उस तिथि को उसका श्राद्ध किया जाता है, लेकिन इसके अलावा भी यह ध्यान देना चाहिए कि नियम अनुसार किस दिन किसके लिए और कौन सा श्राद्ध करना चाहिए?




किसको करना चाहिए श्राद्ध?
पिता के श्राद्ध का अधिकार उसके बड़े पुत्र को है लेकिन यदि जिसके पुत्र न हो तो उसके सगे भाई या उनके पुत्र श्राद्ध कर सकते हैं। यह कोई नहीं हो तो उसकी पत्नी कर सकती है। हालांकि जो कुंआरा मरा हो तो उसका श्राद्ध उसके सगे भाई कर सकते हैं और जिसके सगे भाई न हो, उसका श्राद्ध उसके दामाद या पुत्री के पुत्र (नाती) को और परिवार में कोई न होने पर उसने जिसे उत्तराधिकारी बनाया हो, वह व्यक्ति उसका श्राद्ध कर सकता है।
16 तिथियों का महत्व क्या है?
श्राद्ध की 16 तिथियां होती हैं, पूर्णिमा, प्रतिपदा, द्वि‍तीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्टी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या। उक्त किसी भी एक तिथि में व्यक्ति की मृत्यु होती है चाहे वह कृष्ण पक्ष की तिथि हो या शुक्ल पक्ष की। श्राद्ध में जब यह तिथि आती है तो जिस तिथि में व्यक्ति की मृत्यु हुई है उस तिथि में उसका श्राद्ध करने का विधान है! 
इसके अलावा प्रतिपदा को नाना-नानी का श्राद्ध कर सकते हैं। जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई है उनके लिए पंचमी तिथि का श्राद्ध किया जाता है। सौभाग्यवती स्त्री की मृत्यु पर नियम है कि उनका श्राद्ध नवमी तिथि को करना चाहिए, क्योंकि इस तिथि को श्राद्ध पक्ष में अविधवा नवमी माना गया है। यदि माता की मृत्यु हो गई हो तो उनका श्राद्ध भी नवमी तिथि को कर सकते हैं। जिन महिलाओं की मृत्यु की तिथि मालूम न हो, उनका भी श्राद्ध नवमी को किया जाता है। इस दिन माता एवं परिवार की सभी स्त्रियों का श्राद्ध किया जाता है। इसे मातृ नवमी श्राद्ध भी कहा जाता है।
इसी तरह एकादशी तिथि को संन्यास लेने वाले व्य‍‍‍क्तियों का श्राद्ध करने की परंपरा है, जबकि संन्यासियों के श्राद्ध की ति‍थि द्वादशी (बारहवीं) भी मानी जाती है। श्राद्ध महालय के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को बच्चों का श्राद्ध किया जाता है। जिनकी मृत्यु अकाल हुई हो या जल में डूबने, शस्त्रों के आघात या विषपान करने से हुई हो, उनका चतुर्दशी की तिथि में श्राद्ध किया जाना चाहिए। सर्वपितृ अमावस्या पर ज्ञात-अज्ञात सभी पितरों का श्राद्ध करने की परंपरा है। इसे पितृविसर्जनी अमावस्या, महालय समापन आदि नामों से जाना जाता है।

*अतृप्त पितर वंशजोंको हानि करते हैं !*




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