17तारीक बुधवार को भाद्रपद संक्रान्ति है।
2गते भाद्रपद 18 अगस्त गुरुवार को अष्टमी रात 9:22 से प्रारंभ होकर के दूसरे दिन शुक्रवार 19 तारीख रात को 11:00बजे समाप्त हो जाएगी। अतः यह व्रत शुक्रवार 19 तारीख का माना जाएगा तथा गुगा नवमी का पर्व 20 अगस्त शनिवार को मनाया जाएगा।
इसलिए वीरवार 18 तारिक 2गते भाद्रपद 9बजकर 22 से पूर्व अष्टमी लगने से पहले।भोजन कर लेना चाहिए। तथा 18तारिक शुक्रवार पुरे दिन का ब्रत रखना चाहिए।शनि बार उदय कालीन नवमी तिथि में उद्यापन करना चाहिए।
18 तारिक को गुरुवार2गते भाद्रपद लड्डु गोपाल वालरूप झुला झुलना दान,कीर्तन करें।
19तारिक शुक्रवार 3गते भाद्रपद विक्रम संवत 2079 को जनमष्टमी ब्रत। रात्रि में श्री कृष्ण स्त्रोत पाठ ध्यान कीर्तन करके ।इन पुण्य अवसरों का लाभ उठाएं।
दिनांक 18 अगस्त वीरवार 2गते भाद्रपद को सप्तमी तिथि रात को 9:22तक उसके बाद अष्टमी तिथि प्रारम्भ होगी तथा अगले दिन शुक्रवार 19तारिक रात 11बजे समाप्त हो जाएगी। 19 अगस्त 3गते भाद्रपद को प्रात: प्रारंभ होने वाले व्रत के सूर्य भगवान को जल देकर व्रत का संकल्प करें । भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा वृंदावन में बच्चों की परंपरा अनुसार जन्म उत्सव सूर्योदय काली एवं नवमीविद्धा अष्टमी में मनाने की परंपरा है जो कि इस बार इसी प्रकार से आ रही है अर्थात 19 अगस्त का व्रत रखने के पश्चात अष्टमी तिथि शुक्रवार रात 11:00 बजे समाप्त हो जाएगी इसके पश्चात चंद्रमा को अर्घ्य आदि देकर के 20 अगस्त 3गते भाद्रपद को व्रत का पारायण(खोलना) चाहिए ।
कैसे खोलें व्रत - व्रत परायण अर्थात खोलने के लिए। प्रातः सूर्य को जल चढ़ाएं। संध्या वंदन आदि करें।पूजा में जोत जलाए।श्री कृष्ण भगवान का पूजन करें। आरती करें।
क्षमा प्रार्थना मांगे
आवाहनं न जानामि न जानामि विसजृनम।
पूजाचैव न जानामि क्षमयताम परमेश्वर:।।
20अगस्त शनिवार को गुग्गा नवमी का पर्व बड़े हर्षौउल्लास से मनाया जाएगा ।
श्रीमद् भागवत के तिथि के हिसाब से श्री कृष्ण कृष्ण जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र, शुक्रवार को अष्टमी तिथि रोहिणी नक्षत्र के अनुसार तिथि होगी ।
मासी भाद्रपदे अष्टमअष्टम्यां कृष्ण कृष्ण अर्धरात्रअर्धरात्रके,
वृष राशि की स्थिति चंद्रे नक्षत्र रोहिणी।। (भविष्य पुराण उत्तर)
कृष्ण जन्माष्टमी निशीथ व्यापिनी गृह्या।
पूर्व दिन और निशीथ योगे पूर्वा।।(धर्मसिंधु)
स्मार्त एवं वैष्णव में भेद
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व्रत-उपवास आदि करने वालों को 'वैष्णव' व 'स्मार्त' में भेद का ज्ञान होना अतिआवश्यक है। हम यहां 'वैष्णव' व 'स्मार्त' का भेद स्पष्ट कर रहे हैं।
'वैष्णव'- जिन लोगों ने किसी विशेष संप्रदाय के धर्माचार्य से दीक्षा लेकर कंठी-तुलसी माला, तिलक आदि धारण करते हुए तप्त मुद्रा से शंख-चक्र अंकित करवाए हों, वे सभी 'वैष्णव' के अंतर्गत आते हैं।
'स्मार्त'- वे सभी जो वेद-पुराणों के पाठक, आस्तिक, पंच देवों (गणेश, विष्णु, शिव, सूर्य व दुर्गा) के उपासक व गृहस्थ हैं, 'स्मार्त' के अंतर्गत आते हैं।
कई पंडित यह बता देते हैं कि जो गृहस्थ जीवन बिताते हैं वे स्मार्त होते हैं और कंठी माला धारण करने वाले साधु-संत वैष्णव होते हैं जबकि ऐसा नहीं है जो व्यक्ति श्रुति स्मृति में विश्वास रखता है। पंचदेव अर्थात ब्रह्मा , विष्णु , महेश , गणेश , उमा को मानता है , वह स्मार्त हैं
प्राचीनकाल में अलग-अलग देवता को मानने वाले संप्रदाय अलग-अलग थे। श्री आदिशंकराचार्य द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि सभी देवता ब्रह्मस्वरूप हैं तथा जन साधारण ने उनके द्वारा बतलाए गए मार्ग को अंगीकार कर लिया तथा स्मार्त कहलाये।
जो किसी वैष्णव सम्प्रदाय के गुरु या धर्माचार्य से विधिवत दीक्षा लेता है तथा गुरु से कंठी या तुलसी माला गले में ग्रहण करता है या तप्त मुद्रा से शंख चक्र का निशान गुदवाता है । ऐसे व्यक्ति ही वैष्णव कहे जा सकते है अर्थात वैष्णव को सीधे शब्दों में कहें तो गृहस्थ से दूर रहने वाले लोग।
वैष्णव धर्म या वैष्णव सम्प्रदाय का प्राचीन नाम भागवत धर्म या पांचरात्र मत है। इस सम्प्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव हैं, जिन्हें छ: गुणों ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज से सम्पन्न होने के कारण भगवान या ‘भगवत’ कहा गया है और भगवत के उपासक भागवत कहलाते हैं।
इस सम्प्रदाय की पांचरात्र संज्ञा के सम्बन्ध में अनेक मत व्यक्त किये गये हैं।
‘महाभारत’के अनुसार चार वेदों और सांख्ययोग के समावेश के कारण यह नारायणीय महापनिषद पांचरात्र कहलाता है।
नारद पांचरात्र के अनुसार इसमें ब्रह्म, मुक्ति, भोग, योग और संसार–पाँच विषयों का ‘रात्र’ अर्थात ज्ञान होने के कारण यह पांचरात्र है।
‘ईश्वरसंहिता’, ‘पाद्मतन्त’, ‘विष्णुसंहिता’ और ‘परमसंहिता’ ने भी इसकी भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या की है।
‘शतपथ ब्राह्मण’ के अनुसार सूत्र की पाँच रातों में इस धर्म की व्याख्या की गयी थी, इस कारण इसका नाम पांचरात्र पड़ा। इस धर्म के ‘नारायणीय’, ऐकान्तिक’ और ‘सात्वत’ नाम भी प्रचलित रहे हैं।
प्रायः पंचांगों में एकादशी व्रत , जन्माष्टमी व्रत स्मार्त जनों के लिए पहले दिन और वैष्णव लोगों के लिए दूसरे दिन बताया जाता है । इससे जनसाधारण भ्रम में पड जाते हैं। दशमी तिथि का मान 55 घटी से ज्यादा हो तो वैष्णव जन द्वादशी तिथि को व्रत रखते हैं अन्यथा एकादशी को ही रखते है। इसी तरह स्मार्त जन अर्ध्दरात्री को अष्टमी पड रही हो तो उसी दिन जन्माष्टमी मनाते हैं। जबकी वैष्णवजन उदया तिथी को जन्माष्टमी मनाते हैं एवं व्रत भी उसी दिन रखते हैं।
रात में किर्तन आदि करे ऊँ नमोः भगवते वासुदेवाय नम: ' का जाप करे।
क्योंकि जिस मनुष्य को श्री कृष्ण अष्टमी के उपवास पूजन आदि का सौभाग्य मिलता है उसके कोटी जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा वह जन्म बंधन से युक्त मुक्त होकर दिव्य वैकुंठ आदि भगवत धाम में निवास करता है ।
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